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________________ बौद्धदर्शन में निर्विकल्पता का स्वरूप एवं उसका जीवन में महत्त्व * 67 2.शान्ति का अनुभव - निर्विकल्पकता में शान्ति का अनुभव स्वाभाविक है। जीवन में जितना निर्विकल्पक होने का अभ्यास बढ़ेगा, उतना ही व्यक्ति शान्ति का अनुभव कर सकेगा। आज मनुष्य विकल्पों में ही अधिक जीता है, निर्विकल्पक स्थिति आती भी है, किन्तु उसे उसका बोध नहीं होता। निर्विकल्पकता के बोध का अभ्यास जितना बढ़ेगा उतना ही शान्ति का अनुभव अभिवृद्ध होगा। जिन जड पदार्थों को ज्ञान ही नहीं होता, उनमें सविकल्पता एवं निर्विकल्पता का प्रश्न नहीं उठता। चेतनाशील को ही ज्ञान होता है तथा वह सविकल्पक एवं निर्विकल्पक दोनों प्रकार का हो सकता है। कभी क्लेशमय चित्तवृत्ति का इतना आधिक्य होता है कि हमें ज्ञान का भी बोध नहीं रहता, मात्र लोभ, द्वेष, मोह सदृश अकुशल धर्मों से ग्रस्त होकर जीते रहते हैं। निर्विकल्पता के बोध के अभ्यास के साथ प्रज्ञा का विकास होता है जो लोभादि अकुशल धर्मों अथवा क्लेशों पर विजय प्राप्त करने में सहायक बनता है। मनुष्य का चित्त अधिकतर चिन्ता, योजना, राग-द्वेषादि के विकल्पों में उलझा रहता है, जिसके होने पर शान्ति का अनुभव नहीं होता। भीतरी शान्ति के अनुभव के लिए निर्विकल्पकता के अभ्यास की अभिवृद्धि आवश्यक है। 3. विकार-विजय - विकार-विजय के सामर्थ्य का विकास भी निर्विकल्पकता के अभ्यास से सहज ही सम्भव होता है। निर्विकल्पक होने पर विकारों को देखने का सामर्थ्य बढ़ता है एवं इसके साथ-साथ ही विकारों को जीतने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। विकारों के उदयकाल में भी साधक उनसे अप्रभावित रह सकता है। इससे उन पर विजय का सामर्थ्य प्राप्त होता है एवं धीरे-धीरे चित्त में उत्पन्न लोभ, द्वेष, मोहादि विकारों को जीता जा सकता है। शमथ एवं विपश्यना एवं अनुपश्यना की साधना इसका प्रमाण है। 4. कार्यक्षमता में अभिवृद्धि - संकल्प-विकल्प मनुष्य की शक्ति का ह्मस करते हैं तथा इनसे रहित निर्विकल्पकता की अवस्था व्यक्ति की शक्ति में अभिवृद्धि करती है, जिससे उसकी कार्यक्षमता एवं निर्णय क्षमता का विकास होता है। फिर व्यक्ति चित्त को एकाग्र कर कार्य को अधिक सही ढंग से करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। 5. शारीरिक आरोग्य - कई बार मन के विकारों के कारण शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं, चित्त की निर्विकल्पक साधना से जब चित्त निर्विकार बनता जाता है तो तनाव से उत्पन्न शारीरिक रोगों का निवारण भी सहज ही होता जाता है। 6. व्यक्तित्व-विकास- निर्विकल्पकता का अभ्यास व्यक्तित्व के विकास का महत्त्वपूर्ण घटक है। इससे व्यक्ति में स्वमूल्यांकन की दृष्टि प्राप्त होती है तथा निष्पक्ष दृष्टि से अपनी कमियों एवं सामर्थ्य को जानने का अवसर प्राप्त होता है। यही नहीं वह कमियों या दोषों को दूर करने के लिए तत्पर भी होता है तथा कुशल धर्मों की अभिवृद्धि हेतु सजग बनता है। व्यक्तित्व-विकास का यही मूलाधार है कि दोषों को दूर कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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