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68 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सद्गुणों का आधान किया जाए और इसके लिए स्वमूल्यांकन की निर्मल दृष्टि आवश्यक है। स्वमूल्यांकन के साथ कुशल धर्म के ग्रहण एवं अकुशल धर्म के त्याग की दृष्टि का विकास भी आवश्यक है जो निर्विकल्पता के विकास के साथ सहज सम्भव है। उपसंहार
मनुष्य के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास में तटस्थ चिन्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो निर्विकल्पकतापूर्वक तटस्थ दृष्टि के विकास से सम्भव है। निर्विकल्पक बोध का जितना विकास होता है, व्यक्ति की प्रज्ञा भी उतनी ही पुष्ट होती है एवं उसे आत्म-विश्वास का भी अनुभव होता है। साथ ही वह अपनी चैतसिक निर्मलता के साथ शारीरिक आरोग्य एवं कार्यक्षमता में अभिवृद्धि का भी अनुभव करता है। बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत निर्विकल्पकता का स्वरूप इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिसका क्रियात्मक स्वरूप विपश्यना ध्यान-साधना में अनुभव किया जा सकता है। द्रष्टाभाव का विकास जितना अधिक होगा उतना ही निर्विकल्पता का अनुभव गहरा होता जायेगा। अथवा निर्विकल्पता का अनुभव जितना सघन होता जायेगा उतना ही द्रष्टाभाव का विकास अधिक होता जाएगा। यह द्रष्टाभाव ही समता की साधना का आधार है। इससे समता या समत्व की साधना पुष्ट होती है जो राग, मोह एवं द्वेष पर विजय प्राप्त करने में सहायक है। इसी से वीतरागता एवं निर्वाण का मार्ग प्रशस्त होता है।
- आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग
तथा निदेशक, बौद्ध अध्ययन केन्द्र जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.)
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