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________________ समसामयिक परिप्रेक्ष्य में शून्यवाद की प्रासंगिकता डॉ. राजकुमारी जैन नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्यवाद का सिद्धान्त समसामयिक सन्दर्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। आज का युग विज्ञान का युग है। एक वैज्ञानिक के अनुसार जगत् की प्रत्येक घटना की उत्पत्ति निश्चित कारण-कार्य नियमों के अनुसार होती है तथा प्रत्यक्षीकरण और प्रयोग की विधि से उन नियमों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | आज के बुद्धिजीवी वर्ग के अनुसार जगत् के स्वरूप की जानकारी प्राप्त करने का एक मात्र साधन यह वैज्ञानिक ज्ञान ही है तथा परिकल्पनात्मक दर्शन द्वारा यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकना सम्भव नहीं है। विभिन्न दार्शनिकों द्वारा हजारों वर्षों से आत्मवाद, जड़वाद, ईश्वरवाद, निरीश्वरवाद आदि जो परस्पर विरोधी तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं तथा ये स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष के खण्डन हेतु जो तर्क-वितर्क करते रहे हैं, वह सब फालतू की बकवास है। बीसवीं शताब्दी के बुद्धिजीवियों का यह मत हमें गौतम बुद्ध की शिक्षाओं और उसके आधार पर प्रतिपादित किये गये शून्यवाद के सिद्धान्त में स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। नागार्जुन के अनुसार प्रतीत्यसमुत्पाद ही शून्यता है प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के अनुसार जगत की प्रत्येक वस्तु और घटना निश्चित कारण कार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न होती है। इन नियमों के ज्ञान पूर्वक ही व्यक्ति अपने लौकिक और आध्यात्मिक - दोनों ही क्षेत्रों अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है और अनिष्ट पदार्थों से बच सकता है। शून्यवाद का सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को स्थापित करने के साथ ही साथ सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों को मिथ्याज्ञान के रूप में प्रतिपादित करता है । इसके अनुसार सत्ता का वास्तविक स्वरूप सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों से परे तथा अनिवर्चनीय है। जब व्यक्ति इन सभी दृष्टियों का परित्याग करके पूर्णतया पूर्वमान्यता रहित होकर वस्तु स्थिति का साक्षात्कार करता है तभी वह यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकता है। - शून्यवाद और समसामयिक चिन्तन में उपर्युक्त सादृश्य होने पर भी एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है और यह अन्तर समसामयिक समस्याओं की दृष्टि से बहुत उपयोगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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