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. 70 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला है। आज की संस्कृति उपभोक्तावादी और भोगपरक संस्कृति है तथा आज समाज में नैतिक मूल्यों के अभाव की स्थिति विद्यमान है। आज का मानव भौतिक समृद्धि की पराकाष्ठा को ही सुखी होने का एक मात्र साधन मानता है। वह उचित-अनुचित किसी भी तरीके से इस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तथा सदाचार पूर्ण जीवन का आदर्श उसकी दृष्टि से पूर्णतया ओझल है। नैतिक-मूल्यों से रहित और भोगपरक इस संस्कृति के कारण आज समाज में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, खाद्य पदार्थों में मिलावट और उसके कारण रोगों में वृद्धि, कर्त्तव्यपालन के प्रति उदासीनता और उसके कारण दुर्घटनाओं में वृद्धि होती जा रही है, जो मानव-जीवन को निरन्तर अधिक असुरक्षित और कष्टमय बना रही है। शून्यवाद का सिद्धान्त इस मूल्यविहीन और भोगपरक दृष्टिकोण का विरोध करता है तथा सुखी होने के लिए सदाचार पूर्ण जीवन पर जोर देता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार हमारे दुःखों का मूलकारण है हमारा अनादिकालीन अज्ञान, विषयासक्ति तथा अनैतिक जीवन। इसके विपरीत सदाचार के नियमों का पालन ही सुख-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। सुखी जीवन की प्राप्ति से सम्बन्धित शून्यवाद के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष पर विचार करने से पूर्व हम शून्यवाद के स्वरूप और प्रकारों पर विचार करेंगे।
शून्यवाद का सिद्धान्त शाश्वत पदार्थो की सत्ता को अस्वीकार करता है तथा जगत में कारण-कार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न नष्ट हो रही विशेष वस्तुओं की सत्ता को ही स्वीकार करता है। शून्यवाद शब्द का अर्थ है स्वभावशून्यता। वस्तु में प्राकृतिक रूप से विद्यमान विशेषताएं उसका स्वभाव कहलाती हैं। ये विशेषताएं पदार्थ में अन्य से निरपेक्ष रूप में विद्यमान होने के कारण उसका शाश्वत स्वरूप है। इन विशेषताओं की न तो किसी समय-विशेष में उत्पत्ति हुई है और न ही इनका विनाश सम्भव है। नागार्जुन अपने शून्यवाद के सिद्धान्त द्वारा इस स्वभाववाद और शाश्वतवाद का खण्डन करते हैं तथा जगत् में कारणकार्य नियमों के अनुसार उत्पन्न नष्ट हो रही विशेष वस्तुओं की सत्ता को ही स्वीकार करते हैं। नागार्जुन कहते हैं "प्रतीत्यसमुत्पाद ही शून्यता है।" 'प्रतीत्य' का अर्थ है इसके होने पर तथा 'समुत्पाद' का अर्थ है यह होता है। अर्थात् कारण का सद्भाव होने पर ही कार्य उत्पन्न होता है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में कार्यकारी है। इन दोनों ही क्षेत्रों से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को समझ कर ही किया जा सकता है। एक किसान अच्छी फसल को प्राप्त करने के उद्देश्य से खेती करने हेतु प्रवृत्त होता है। उसे अपने लक्ष्य में सफलता तभी मिल सकती है जब उसे यह ज्ञात हो कि अच्छी फसल की प्राप्ति के क्या उपाय हैं तथा फसल खराब होने के क्या कारण हैं? इस ज्ञान को अर्जित करके जब वह अच्छी फसल के साधनों को एकत्रित करता है अर्थात् वह अच्छे बीज लेता है, जमीन की भली प्रकार गुड़ाई करके उसमें बीज बोता
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