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समसामयिक परिप्रेक्ष्य में शून्यवाद की प्रासंगिकता * 71 है...तथा फसल खराब होने के कारणों जैसे खरपतवार को बाहर निकालता है, कीड़े आदि से फसल की रक्षा करता है तो वह अच्छी फसल को प्राप्त करता है। अच्छी फसल की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से नहीं होती, वरन् कारण सापेक्ष रूप से होती है तथा इसके लिये मानव द्वारा इस कारण सामग्री का ज्ञान अर्जित करके उसे प्राप्त करना आवश्यक है।
जगत के प्रत्येक पदार्थ में जितनी भी विशेषताएं विद्यमान हैं, ये विशेषताएं उसमें अन्य से सापेक्ष रूप से ही अवस्थित हैं। एक व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से ही पिता होता है तथा किसी व्यक्ति को उसके पिता की अपेक्षा से ही पुत्र कहा जाता है। पितृत्व, पुत्रत्व आदि विशेषण किसी व्यक्ति के स्वाभाविक या अन्य निरपेक्ष विशेषण नहीं हैं बल्कि ये अन्य सापेक्ष विशेषण हैं। पिता-पुत्र सम्बन्ध के समान ही जगत् के प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु को जितने भी विशेषण दिये जाते हैं वे सभी विशेषण उनमें अन्य पदार्थों की अपेक्षा से विद्यमान विशेषण ही हैं। एक सामान्य व्यक्ति अपने इन विशेषणों, जैसे - धनवान, युवा, अधिकारी, आदि को अपना स्वभाव मानकर अपना स्थायी स्वरूप मान लेता है तथा इसके कारण अहंकार, स्वार्थ, राग, द्वेष, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो जाता है। उसकी ये दुष्प्रवृत्तियां उसकी मानसिक शान्ति को भंग करके उसके जीवन को कष्टमय बना देती हैं। व्यक्ति इन कष्टों से तभी मुक्ति पा सकता है जब वह स्वयं के
और अन्यों के समस्त विशेषणों के परसापेक्ष स्वरूप को समझे, यह समझे कि ये सभी विशेषताएं अन्य वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न विशेषताएं हैं और इसलिये ये स्थायी न होकर नाशवान हैं।
नागार्जुन जगत के विभिन्न पदार्थो की स्वभाव शून्यता और अन्य सापेक्ष स्वरूप को प्रपंच शून्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं। साथ ही वे स्वयं के और जगत् के प्रति सभी प्रकार की दार्शनिक दृष्टियों की व्यर्थता तथा उससे ऊपर उठने के आदर्श को परमार्थ शून्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं। माध्यमिककारिका में वे सभी प्रकार के परस्पर विरोधी दार्शनिक सिद्धान्तों की अपूर्णता तथा इन सिद्धान्तों में सत्ता के स्वरूप की व्याख्या करने की सामर्थ्य के अभाव का प्रतिपादन करते हैं। वे सत्कार्यवाद की कमियों को प्रदर्शित करते हैं और असत्कार्यवाद के दोष भी दिखाते हैं। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी होने के कारण एक साथ स्वीकार नहीं किये जा सकते और दोनों ही नहीं हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता। लंकावतार सूत्र में वे कहते हैं कि सत्ता के प्रति सत्, असत्, सत् और असत् दोनों तथा न सत् न असत् इन चारों ही कोटियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। सत्ता का स्वरूप चतुष्कोटि विनिर्मुक्त और अनिर्वचनीय है। इसका यथार्थ ज्ञान मात्र निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। नागार्जुन के द्वारा समस्त तत्वमीमांसीय सिद्धान्तों की व्यर्थता का प्रतिपादन उनकी अनुभववादी दृष्टि का परिचायक है। व्यक्ति का तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त उसकी पूर्वमान्यता है, बन्धन
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