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________________ 72 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला है। व्यक्ति को स्वयं के और जगत् के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान स्वयं के प्रत्यक्ष से ही हो सकता है। जब व्यक्ति किसी तत्त्वमीमांसीय दृष्टि के प्रति समर्पित होता है तो वह अपनी दृष्टि को अपने अनुभव पर आरोपित कर देता है तथा प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य विषय को यथावत् न समझ कर अपनी पूर्वमान्यताओं के अनुसार उसकी व्याख्या करता है। इसलिये समस्त तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों पर आधारित व्याख्याओं से युक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान है। अतः सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति इन तत्त्वमीमांसीय दृष्टियों से मुक्त होने एवं प्रत्यक्ष द्वारा वस्तु को यथावत् जानने से ही हो सकती है। शून्यवाद की समसामयिक बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोण से उपर्युक्त समानता होने पर भी इन दोनों में एक मूलभूत अन्तर है, वह है सदाचार के नियमों का पालन। आज़ का बुद्धिजीवी प्रकृति के ज्ञान को अर्जित करने में लगा हुआ है। वह विभिन्न घटनाओं के पीछे कार्य कर रहे कारणात्मक नियमों को जानकर प्रकृति पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास कर रहा है, विभिन्न भौतिक सुखों की प्राप्ति के साधनों का आविष्कार करने में लगा हुआ है। उसके इन प्रयत्नों से भौतिक सुखों के साधनों में वृद्धि होती जा रही है। भौतिक समृद्धि में निरन्तर हो रही वृद्धि के बावजूद भी आज का मानव बहुत अशान्त, तनावग्रस्त और दुःखी है। उसकी इस स्थिति का मूल कारण है आज के युग में नैतिक मूल्यों का पूर्णतः अभाव। इस मूल्यविहीनता की स्थिति से उत्पन्न समस्याओं की दृष्टि से नागार्जुन का शून्यवाद का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण है। नागार्जुन गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्यों को स्वीकार करते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार दुःख का मूल कारण व्यक्ति का अनादिकालीन अज्ञान और उसके कारण व्यक्ति में विद्यमान राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि विकार हैं। दुःखों के इस कारण को समाप्त कर व्यक्ति सुखी तभी हो सकता है जब वह अपने अनादिकालीन अज्ञान को समाप्त करे। यह कार्य शील (सदाचार के नियम), समाधि और प्रज्ञा के अवलम्बन पूर्वक ही हो सकता है। इस प्रकार आज के मूल्यविहीन समाज को मूल्यबोध के प्रति जागरूक होने तथा व्यक्तिगत सुख और सामाजिक शान्ति और व्यवस्था को स्थापित करने की दृष्टि से नागार्जुन का शून्यवाद अत्यन्त प्रासंगिक है। प्राध्यापक, दर्शनशास्त्र विभाग राजकीय महाविद्यालय, अजमेर (राजस्थान) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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