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बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक न्याय
डॉ. औतारलाल मीणा
भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण पर्यंत जो कुछ उपदेश दिये. थे सब मौखिक ही थे तथा उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात् समयांतर पर हुई तीन संगीतियों के बाद प्रथम सदी ईसा पूर्व या उसके पश्चात् बौद्ध ग्रंथों का लेखन हुआ जो आज हमारे समक्ष तिपिटक के रूप में उपलब्ध हैं। इसी त्रिपिटक के आधार पर प्रस्तुत शोध आलेख का विश्लेषण किया जा रहा है, जिससे स्पष्ट होगा कि भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए क्या किया।
भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश या दर्शन का प्रमुख आधार तत्त्वों को बनाया, जो निम्नलिखित हैं -
1. उन्होंने दर्शन की जटिलताओं में न जाकर एक सर्वबोधगम्य आचार-संहिता के पालन का उपदेश दिया।
2. तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों का प्रत्यक्ष विरोध न करके एक सुधारक के रूप में तयुगीन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया।
बौद्ध जीवन-पद्धति में सामाजिक न्याय का सिद्धान्त शुद्धतः मानववादी एवं लौकिक है। यह वैदिक अथवा प्लेटोनिक धारणा से बिल्कुल भिन्न है। बौद्ध दृष्टिकोण सामाजिक न्याय को सदाचरण के साथ जोड़ता है। व्यक्तियों के निर्मल मन और सदाचरण समाज की शान्तिप्रिय एवं न्याय संगत व्यवस्था स्थापित करने में समर्थ होंगे, ऐसी भगवान बुद्ध को आशा थी। ___'सामाजिक न्याय' के संबंध में तीन प्रमुख आधार स्तंभ हैं - (1) स्वतंत्रता (2) समानता (3) बंधुता। भगवान बुद्ध के उपदेशों में इनका अनेक बार उल्लेख हुआ है।
भगवान बुद्ध ने भिक्खुओं को धर्म-प्रचारार्थ विदा करने से पूर्व कहा था - 'बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए लोक पर दया करने के लिए देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो।' 1. विनयपिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 87
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