SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . 74 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला सामाजिक न्याय के आधार स्तम्भों में सर्वप्रथम स्वतंत्रता का विश्लेषण आवश्यक है, क्योंकि पराधीन रहकर व्यक्ति न तो स्वयं के लिए इच्छानुकूल कार्य कर सकता है और न समाज के लिए ही। कहा भी गया है - 'पराधीन सपनेहु सुख नाही' अर्थात पराधीन रहने पर व्यक्ति स्वप्न में भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता है। किसी भी समाज की स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त होती है - लोकतंत्र। लोकतांत्रिक प्रणाली में ही व्यक्ति अपने अधिकारों का सम्यक् पालन कर समाज एवं देश के विकासोन्मुख कार्य कर सकता है तथा इस प्रणाली के द्वारा समाज तथा देश की रक्षा की जा सकती है। भगवान बुद्ध भी गणतान्त्रिक प्रणाली के पक्षधर थे तथा बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था। तत्कालीन जितने भी संघ थे, यथा - वज्जि संघ आदि, सभी गणतंत्र के पोषक थे। भगवान बुद्ध का जन्म भी गणतंत्र में ही हुआ था, शायद इसीलिए उन्होंने भिक्खुओं के समूह का नाम 'संघ' रखा था। भगवान बुद्ध का गणतांत्रिक प्रणाली में विश्वास था, इसकी प्रामाणिकता राजगृह में भगवान बुद्ध और मगध सम्राट अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार के मध्य हुए वार्तालाप से प्राप्त होती है, जिसका वर्णन दीघनिकाय के महापरिनिब्बान सुत्त में मिलता है।' गणतांत्रिक प्रणाली के प्रति भगवान बुद्ध के मन में गहरी आस्था थी, इस बात का प्रमाण बौद्ध संघ की कार्य-प्रणाली से स्पष्ट मिलता है। संघ के कार्य के संपादन के लिए भगवान बुद्ध ने निश्चित विधान का निर्माण किया था जो गणतांत्रिक आधार पर निर्मित था। स्वतंत्रता के संबंध में यह भी देखा जा सकता है कि भगवान बुद्ध ने कभी किसी को बलपूर्वक संघ में शामिल नहीं किया। पालि पिटक साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण भरे मिलते हैं, जिनमें हम देखते हैं कि तत्कालीन कई ब्राह्मण एवं अन्य गणाचार्य भगवान बुद्ध के समक्ष अपने मत को रखते हैं तथा तर्क द्वारा उसे प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं, परंतु जब वे भगवान बुद्ध के तर्को से संतुष्ट हो जाते हैं तो त्रिशरण की शपथ लेते हैं। बौद्ध धर्म में उपस्थित स्वतंत्रता की महत्ता के विश्लेषण के पश्चात् 'समता' का वर्णन आवश्यक है। भगवान बुद्ध ने माना है कि चित्त की शुद्धि सबसे आवश्यक है। इसके होने से ही एक मानव दूसरे को मानव समझ सकेगा और जिस दिन ऐसा होगा, सामाजिक न्याय स्वतः सभी को मिल जाएगा। इस प्रकार तथागत ने मानव-मानव के बीच के भेदभाव को समाप्त करने पर बल दिया है, जिसके तत्कालीन समाज में अनेक उदाहरण थे। वर्णभेद का इतिहास भारतीय संदर्भ में अत्यन्त प्राचीन है। ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ में तो यह ज्यादा रूढ़ नहीं था, परन्तु कालांतर में जाति-भेद सम्बन्धी मनुष्य की 2. दीघनिकाय, पृ. 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy