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बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता
डॉ. प्रद्युम्न दुबे
बौद्ध दर्शन यथार्थ पर आधृत एवं लोकमंगलकारी है। बुद्ध ने लोक-कल्याण हेतु दुःख एवं दुःख-मुक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने उपनिषदों द्वारा अत्यधिक चिन्तन के विषय 'आत्मा' की शाश्वतता को नकार दिया। यही बुद्ध का अनात्मवाद है। भगवान् बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को 'धम्मचक्कपवत्तनसुत्त' का उपदेश दिया। उसके पश्चात् पाँचवें दिन उन्होंने उन्हें 'अनत्तपरियाय' देशना दी। वहाँ पर उन्होंने स्पष्ट किया पञ्चस्कन्धों में आत्मा की उपलब्धि नहीं होती है। पाँचों स्कन्ध अनित्य और परिणामतः दुःख हैं। अतः ये हमारे नहीं हैं।'
भगवान बुद्ध के अनात्मवाद के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। अनेक विद्वानों का मानना है कि भगवान बुद्ध ने आत्मा का खण्डन करके संसारी को संसार-प्रवाह में निमग्न कर दिया। इसके विपरीत कुछ विद्वानों ने कहा कि इस प्रकार का नैरात्म्यवाद परवर्ती भिक्षुओं और आचार्यों की बुद्धि की उपज है। तथागत ने केवल अनात्मभूत तत्त्वों में आत्मा को न देखने का उपदेश दिया था, आत्मा का सर्वथा तिरस्कार नहीं किया। नागार्जुन के अनुसार विशेष अभिप्राय से तथागत ने आत्मवाद तथा अनात्मवाद दोनों का उपदेश दिया, किन्तु उनका वास्तविक अभिमत था कि न आत्मवाद तात्त्विक है, न अनात्मवाद। सत्यं तो दोनों कोटियों से परे अनिर्वचनीय रूप से प्रतिष्ठित है।'
नागार्जुन ने जो यह कहा कि विशेष अभिप्राय से बुद्ध ने आत्मवाद एवं अनात्मवाद का उपदेश किया, उसकी झलक पालि-साहित्य में भी प्राप्त होती है। कुछ 1. अनत्तपरियायो, महावग्ग, नालन्दा संस्करण, पृ. 16-18 2. द्रष्टव्य - डॉ. पाण्डेय, गोविन्द चन्द्रः बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास (बौ. ध.वि.इ.), हिन्दी
समिति, सूचना विभाग, उ.प्र., लखनऊ, 1976 पृ. 101, पाद टिप्पणी, (पा.टि.),118 .. 3. वही, पा. टि. 1.19 4. आत्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशितम्।।
बुद्धर्मात्मा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितम् ।। - मध्यमकशास्त्र 18.6
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