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________________ 24 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विद्वानों का यह मानना है कि भगवान् ने आत्मा को सर्वथा नकारा होता तो पालि-साहित्य में अत्त एवं 'अत्ता' से संयुक्त शब्दों का प्रयोग बार-बार नहीं प्राप्त होता। पालि ग्रंथों में 'अज्झत्त', पच्चत्त, अत्तभाव, पहितत्त आदि शब्दों में 'अत्ता' का विशिष्ट उपयोग प्राप्त होता है। 'अज्झत्त' शब्द परवर्ती काल में 'बाह्य' का प्रतियोगी मात्र रह गया था, किन्तु प्राचीनतर स्थलों में अज्झत्त' के साथ उपादेयता और कल्याण की भावना संबद्ध थी। पच्चत्त' एवं पच्चत्तवेदनीय प्रयोगों में लौकिक चित्त के द्वारा बाह्य वस्तुओं के ज्ञान से परे ज्ञान विवक्षित है। 'अत्तभाव' का प्रयोग व्यक्तिविशेष के रूप में उपपत्तिलाभ को सूचित करता है। इसमें पिछला कर्म भी भौतिक रूप में सम्मिलित होता है। 'अत्तभाव' आत्मा नहीं है, प्रत्युत आत्मा का योनि-विशेष में देह-परिग्रह है। संयुत्तनिकाय के कोसलसंयुत्त में आत्मा को प्रियतम कहा गया है और यह कहा गया है कि 'अत्तकाम' हिंसा नहीं करता। इस सत्त में रानी मल्लिका द्वारा आत्मा को सभी से प्रिय एवं श्रेष्ठ कहा गया है। यहाँ पर बृहदारण्यक उपनिषद् के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद की याद आती है, जहाँ यह कहा गया है कि 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' याज्ञवल्क्य का इससे यह निष्कर्ष था कि 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः'। तथागत ने भी भद्रवर्गीय तरुणों का उपदेश दिया था - 'अत्तानं गवेसेय्याथ'।' ___ बौद्ध दर्शन में आत्मा, पुद्गल और जीव पर्यायवाची शब्द के रूप में माने गये हैं। यहाँ पर आत्मा की परमार्थतः उपलब्धि नहीं मानी गई हैं। जिस प्रकार ईषा (दण्ड), अक्ष, चक्र ढाँचा (पञ्जर), रस्सियाँ, लगाम, चाबुक आदि में से कोई भी एक वस्तु रथ नहीं है, अपितु इन सभी अवयवों को मिलाकर व्यवहार के लिए 'रथ' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान में से कोई भी आत्मा या जीव नहीं है, अपितु इनके समुदाय को व्यवहारार्थ 'जीव' या 'आत्मा' कहते हैं। भगुवान बुद्ध ने 'अनत्तसुत्त' नाम से कई सुत्तों का उपदेश कई स्थलों पर दिया है। उनमें यह उपदेश दिया गया है कि रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार तथा विज्ञान 5. बौ.ध.वि.इ., पृ. 101 पा.टि. 123 .. 6. सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि। एवंपियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो।। मल्लिकासुत्त, कोसलसंयुत्त, संयुत्तनिकाय (सं.नि.), पृ. 74 (नालन्दा संस्करण) 7. भद्दवग्गियवत्थु, महावग्ग, पृ. 25 (नालन्दा संस्करण) 8. यथा हि अंगसम्भारा, होति सद्दो रथो इति। एवं खन्धेसु सन्तेसु, होति सत्तो ति सम्मुति।। मिलिन्दपज्हो (मि.प.) • संपा.-शास्त्री, स्वामी द्वारिकादास, बौद्ध भारती, वाराणसी 1979 ए पृ. 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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