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बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता * 25 आत्मा नहीं हैं यह जो वस्तु अनात्म हैं, उन्हें दूर रखना चाहिये। अनत्त भावना के अभ्यास से महान् लाभ होता है।
अनात्मवाद को समझने के लिए अत्यधिक आधिकारिक अनत्तपरियायो" को उद्धृत करना समीचीन होगा। इसका उपदेश भगवान् बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को धम्मचक्कपवत्तन सुत्त के पश्चात् दिया। भगवान बुद्ध ने कहा - 'रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान- इनमें से कोई भी आत्मा नहीं है। यदि ये पंचस्कन्ध आत्मा होते तो पीड़ादायक नहीं बनते और इन पञ्चस्कन्धों में यह पाया जाता है कि 'ये मेरे रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान' ऐसे होते और ऐसे नहीं होते। चूँकि ये रूप आदि पञ्चस्कन्ध अनात्मा हैं, अतः पीड़ा-दायक हैं और इनमें पञ्चस्कन्ध ऐसे होते और ऐसे नहीं होते, यह नहीं पाया जाता है।
ये पाँच स्कन्ध अनित्य हैं, अतः दुःख हैं। जो वस्तुएँ अनित्य होती हैं, वे परिवर्तनशील होती हैं और दुःखदायी होती हैं। उनके संबंध में यह नहीं कर सकते कि 'यह (अनित्य पदार्थ) मेरा है, यह मैं हूँ और यह मेरी आत्मा है। ऐसा ज्ञान होने पर विद्वान् आर्य शिष्य रूप के प्रति घृणा करता है। घृणा करने पर उनसे विराग को प्राप्त करता है। विराग के कारण मुक्त होता है। मुक्त होने पर 'मुक्त हूँ' ऐसा ज्ञान होता है और वह जानता है कि आवागमन नष्ट हो गया, ब्रह्मचर्यवास पूरा हो गया, जो करना था वह कर लिया, अब यहाँ करने को कुछ शेष नहीं है।13 ___यहाँ पर जिस बात पर बल दिया गया है और जिसे पालि सुत्तों में बार-बार दुहराया गया है, वह यह है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान निरन्तर परिवर्तनशील, अनित्य और दुख हैं, अतः वे शाश्वत और नित्य आत्मा नहीं हो सकते
और ऐसा कहना कि 'मैं यह हूँ', 'यह मेरा है', 'यह मैं स्वयं हूँ', मात्र अहंकार है। निर्वाण प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को इन सबसे मुक्त होना होगा। यह बुद्ध-धर्म का सार है। सत्यकायदृष्टि (प्रत्येक जीव में शाश्वत आत्मा का सिद्धान्त) की निन्दा 9. 14. अनत्तसुत्त, 3 खन्धसंयुत्त, सं. नि. पृ. 258-259 (नालन्दा संस्करण) वही पृ. 409 10. 78 अनत्तसुत्त, 5, महावग्गो, सं.नि. पृ. 117 11. अनत्तपरियायो, महावग्ग, (नालन्दा संस्करण), पृ. 16-18 12. यं पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वा ति? दुक्खं मन्ते। यं पनानिच्चंदुक्खं विपरिणामधम्म,कल्लं, नुतं __समनुपस्सितुं - एतं मम, एसो हमस्मि, एसो मे अत्ता ति? नो हेतं भन्ते। वही,पृ. 17. 13. एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा अरियासावको रूपस्मिं पि निब्बिन्दति, वेदनाय पि... नापर इत्थत्ताया ति
पजानाति । वही, पृ. 17-18 14. द्रष्टव्य-एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - "सिया, भिक्खुनो तथा रूपो
समाधिपटिलाभो यथा इमस्मिं च सविज्ञाणके काये अहंकारममंकारमानानुसया नास्सु, बहिट्ठा च सब्बनिमित्तेसु अहंकारममंकारमानानुसया नास्सुय यं च चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं उपसम्मज्ज विहरतो - ...विहरेय्या 'ति। अन्य इसी प्रकार के आशय वाली पंक्तियाँ। अंगुत्तरनिकाय (अं.नि.) भा.1(नालन्दा संस्करण), पृ. 122-124
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