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पालि-साहित्य में प्रजातान्त्रिक मूल्य
डॉ. विजयकुमार जैन
पालि-साहित्य (त्रिपिटक) मूलतः बुद्ध वचन है। पश्चात् उसी त्रिपिटक का पोषक साहित्य अनुपिटक अट्ठकथा साहित्य है। पालि में लिखने वाले आचार्यों के सामने बुद्ध का अनुशासन विद्यमान है। भगवान् बुद्ध के समय भाषा के पक्ष की बात आने पर भगवान ने अपनी-अपनी भाषा में बुद्ध वचन संग्रह करने की बात कही थी। आधुनिक विद्वान् प्रजातंत्र का अर्थ जनता का शासन करते हैं। भगवान् बुद्ध की शिक्षाएं 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' रहीं। इस घोषणा में ही प्रजातंत्र की आधारशिला रख दी गई थी। भगवान ने भिक्षुओं को आदेश दिया था कि भिक्षुओं, बहुजन के हित एवं सुख के लिए विचरण करो। प्रचलित राजतंत्र में सभी के हित का ध्यान नहीं रखा जाता था, वर्ग विशेष एवं कुल विशेष की प्रधानता रहती थी। राजा के कुल में जन्म से ही व्यक्ति का राज्य पर अधिकार माना जाता था। इसकी जड़ को काटते हुए बुद्ध ने यह घोषणा कर दी कि जन्म से कोई महान नहीं होता, कर्म से ही कोई महान होता है। सबसे महत्त्वूपर्ण बात है कि भगवान बुद्ध ने संघ के स्वरूप में प्रजातंत्र का ढांचा विकसित किया था। - यह तो बहुत सामान्य बात है कि पालि-ग्रंथों में गणतंत्रों एवं प्रदेशों के नाम मिलते हैं, जैसे शाक्यों का कपिलवस्तु, कोलियों का रामग्राम, मौर्यों का पिप्पलिवन, मल्लों का कुसीनारा पावेय्यक, लिछवियों का वैशाली, एवं इसी तरह तीन गणतंत्रों में मिथिला-विदेह सुषुमारगिरि के भग्ग, कालाम केसपुत उल्लेखनीय हैं। शाक्यों के संस्थागार का उल्लेख मिलता है जिसका प्रारम्भ (उद्घाटन) भ. बुद्ध ने किया था। हम उन बिन्दुओं पर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जिनके कारण प्रजातंत्र का स्वरूप मजबूत होता है -
संघ में प्रव्रज्या देते समय भिक्षुओं से पूछा जाता था। संघ की स्वीकृति के बाद ही प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा का विधान था।
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