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________________ 20 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला मग्गंङ्गानि समोधानेत्वा आणबन्धनेन बद्धा अहोसि भिसि । सा च सत्ततिंसबोधिपक्खियधम्मपरिपुण्णताय एकरसभावूपगतत्ता अञ्ञम अनतिवत्तनेन पुन बन्धितब्बप्पयोजनाभावेन देव मनुस्सेसु केनचि मोचेतुं असक्कुणेय्यताय च सुसंघता । ताय चम्हि तिण्णो, पुब्बे पत्थितं तीरप्पदेसं गतो । गच्छन्तोपि च न सोतापन्नादयो विय कञ्चिदेव पदेसं गतो । अथ खो पारगतो, सब्बासवक्खयं सब्बधम्मपारं परमं खेमं निब्बानं गतो, तिण्णो ति वा सब्बञ्जतं पत्तो, पारगतो ति अरहत्तं पत्तो । जहां धनिय सोचता है कि विषय भोग ही मनुष्य के सुख के कारण हैं, मार के शब्दों में उपधीहि नरस्स नन्दना वहां भगवान का कहना है कि उपधी हि नरस्स सोचना, न हि सो सोचति यो निरूपधि । भरत सिंह उपाध्याय के शब्दों में दोनों आदर्शों का इससे अधिक सुन्दर निरूपण, संभवतः संपूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं मिल सकता (पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 294) कसभारद्वाज सुत्त में भौतिक कृषि और आध्यात्मिक कृषि की तुलना की गयी है। भगवान भी अपने को कृषक बताते हैं कि श्रद्धा मेरा बीज है, तप वृष्टि और प्रज्ञा जुआ तथा हल है, ह्री हलदण्ड है तथा मन हल और जुआ को बांधने की रस्सी और स्मृति फाल तथा प्रतोद ( हांकने की छड़ी ) है आदि । अंत में भगवान का कहना है कि मैं जो कृषि करता हूँ उसका फल खाकर फिर कोई भूखा नहीं रहता, लेकिन तुम्हारी कृषि का फल खाकर, फिर भूख लगती है। अंत में क़सिभारद्वाज कहता है - मम कसिफलं भुञ्जित्वा अपरज्जु एव छातो एव होति, इमस्स पन कसि अमतप्फला, तस्सा फलं भुञ्जित्वा सब्बदुक्खा पमुच्चतीति । (देखें, सुत्तनिपात अट्ठकथा 1.119) एवमेसा कसी कट्ठा, सा होति अमतप्फला। एतं कसि कसित्वान, सब्बदुक्खा पमुच्चति ।। तिपिटक को पढ़ने से जीवन के विविध पक्षों पर भगवान द्वारा कही गयी बातें देखने को मिलती है और ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह के प्रज्ञा संपन्न व्यक्ति का कथन कितना सत्य है । भगवान ने कई स्थलों पर पर्यावरण के बारे में भी कहा है। मानव का पर्यावरण के साथ क्या संबंध है तथा पर्यावरण की रक्षा कैसे की जानी चाहिए, इस पर उनके बड़े ही गंभीर विचार हैं। चूंकि मानव और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध है, इसलिए पर्यावरण की रक्षा से ही मानव की रक्षा हो सकती है। पर्यावरण की रक्षा न की गयी तो मनुष्य अरक्षित हो जायेगा । दीघनिकाय के अग्गज्ञसुत्त में भगवान ने कहा कि मनुष्य का लोभ पर्यावरण का शत्रु है। अगर हम संतुलित जीवन जीना चाहें तो प्रकृति हमारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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