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त्रिपिटक के अध्ययन की उपयोगिता 19 इस सुत्त में सात अपरिहानीय धर्मो का वर्णन है जिनमें गणतंत्र की उन्नति होती है। आज भी ये धर्म उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जैसे पहले थे।
यहाँ यह भी कहा गया है कि जिस धर्मविनय में अष्टांगिक मार्ग नहीं है, वहां श्रमण नहीं होते । अष्टांगिक मार्ग शील, समाधि तथा प्रज्ञा से समन्वित है। अतः स्पष्ट है कि श्रामण्य प्राप्ति में इस मार्ग का सर्वाधिक योगदान है।
हात्ति से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य का उद्देश्य दिव्य शब्द सुनना नहीं, बल्कि शील सदाचार का जीवन जीकर सत्य का साक्षात्कार करना तथा निर्वाण का अधिगम करना है ।
दीघनिकाय के पोट्ठपादसुत्त तथा मज्झिम निकाय के चूलमालुंकयसुत्त में भगवान ने दस प्रश्नों को अव्याकृत कहा है और कहा है कि इन प्रश्नों का उत्तर खोजना व्यर्थ का समय गंवाना है । न हेते पोट्टपाद, अत्थसंहिता, न धम्मसंहिता, न आदिब्रह्मचरियका, न निब्बिदाय, न विरागाय, न निरोधाय, न उपसमाय, न अभिज्ञाय, न सम्बोधाय, न निब्बानाय संवत्तन्ति ।
इन प्रश्नों का उत्तर खोजते रहना वैसी ही मूर्खता है जैसे विष- बुझे तीर से पीड़ित व्यक्ति का तब तक तीर न निकलवाना जब तक कि वह तीर तथा तीर चलाने वालों के बारे में पूरा न जान ले।
वैसे तो सुत्तपिटक के सभी सुत्त महत्त्वपूर्ण हैं पर यहां मैं कुछ सुत्तों के बारे में विशेष कहना चाहूँगा । सुत्तनिपात का धनियसुत्त गार्हस्थ्य सुख और आध्यात्मिक सुख की तुलना करता है । धनिय गोप कहता है -
'पक्कोदनो दुद्धखीरोहमस्मि' तो भगवान कहते हैं 'अक्कोधनो विगतखिलोहमस्मी । '
यहां शब्दों में ध्वनि साम्य होते हुए भी अर्थसाम्य नहीं है, फिर भी इस ध्वनिसाम्य से काव्य में एक सुन्दर चमत्कार आ जाता है।
धनिय गोप गार्हस्थ्य सुख का वर्णन करता है और भगवान बुद्ध आध्यात्मिक सुख का। यहां यह दिखाया गया है कि कैसे आध्यात्मिक सुख गार्हथ्य सुख के गुणात्मक रूप से बड़ा है। धनिय गोप का सुख बंधन पैदा करता है और भगवान बुद्ध मुक्ति का सुख अनुभव करते हैं। भगवान धनिय से यह कहते हैं कि 'तुम नाव बना कर मही नदी पार कर यहां आये हो, तुम्हें पुनः नाव बनाकर मही नदी पार कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा, लेकिन मैं जहां चला गया हूँ वहां से मुझे पुनः लौटना नहीं है।' अट्ठकथा में बुद्धघोष ने एक उदात्त उपमा द्वारा यह बात समझायी है
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'धनिय, त्वं कुल्लं बन्धित्वा, महिं तरित्वा, इमं ठानमागतो, पुनपि च ते कुल्लो बन्धितब्बो एवं भविस्सति, नदी च तरितब्बा, न चेतं ठानं खेमं । मया पन एकचिते
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