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पालि - साहित्य में प्रजातांत्रिक मूल्य 55 शिलालेखों में उत्कीर्ण कराए जाते हैं तथा विभिन्न प्रदेशों में भिक्षुओं को भेजा जाता है।
स्वयं अशोक के पुत्र एवं पुत्री श्रीलंका जाते हैं तथा जाते समय कहते हैं कि 'आपके उपकार के लिए आए हैं, विजय प्राप्त करने के लिए नहीं ।' धर्म प्रचार का भी यह उदाहरण अनुपम है, प्रजातांत्रिक है, तानाशाही नहीं ।
दीघनिकाय के महापरिनिर्वाणसुत्त में वर्णित सात अपरिहानीय धर्म तो किसी भी राष्ट्र के प्रजातंत्र के लिए मूलमंत्र हैं। इनको संघ में अनिवार्य किया गया ।
'महापरिनिब्बाण - सुत्त' में यह उल्लेख मिलता है कि भगवान ने वैशाली में लिच्छवियो ं को सर्वप्रथम सात अपरिहानीय धम्म का उपदेश दिया था और उसी का स्मरण राजगृह में वर्षकार ब्राह्मण के आने पर आयुष्मान आनन्द की उपस्थिति में किया गया। ये सात उन्नतिगामी अपरिहानीय धम्म भी प्रजातंत्र की सफलता में अपना विशेष योगदान देते हैं। ये सात अपरिहानीय धम्म इस प्रकार हैं
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1. सम्मति के लिए बराबर बैठक करना ।
2.
एक साथ बैठक करना, एक साथ उठना और एक साथ करणीय कार्यों का
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करना ।
3.
अवैधानिक कार्यो को न करना और विधान का उल्लंघन न करना । 4. वृद्धों का सत्कार - सम्मान करना, उनकी बातें सुनने योग्य मानना।
5.
महिलाओं के साथ जोर जबर्दस्ती न करना, उचित व्यवहार करना । 6. पूजनीय स्थानों की पूजा का लोप न करना ।
7. अर्हतों (पूज्यों) की धार्मिक रक्षा करना । '
• जब शासक और प्रजा एक साथ बैठक करेंगे और करणीय कार्यों को करेंगे तभी प्रजातंत्र की सफलता सुनिश्चित होगी। इसी प्रकार अवैधानिक कार्यों को न करने और वैधानिक कार्यो का उल्लंघन न करने से वृद्धों का सम्मान करने तथा महिलाओं के साथ उचित व्यवहार करने से भी प्रजातंत्र की सफलता सम्भव होती है, क्योंकि वृद्ध और महिलाओं के एक बड़े समूह की उपेक्षा प्रजातंत्र शासन के लिए घातक सिद्ध होती है।
जिस देश में प्रजा व्यर्थ के सम्प्रलाप न करने वाली होगी, निद्रालु न होगी, पापेच्छ से युक्त न होगी, बुराई की ओर रुझान न रखने वाली होकर कर्मठ होगी अर्थात् थोड़े से साफल्य को पाकर बीच में न छोड़ देने वाली होगी, उस देश की प्रजा का . नैतिक स्तर समुन्नत होगा । यह प्रजातंत्र शासन की कुंजी है। भगवान् बुद्ध अन्य सात अपरिहानीय धर्मो का उपदेश देते हुए कहते हैं कि अन्य भी सात अपरिहानीय धर्म हैं जो इस प्रकार हैं -.
1. द्रष्टव्य, महापरिब्बाण सुत्त, दीघनिकाय, महाबोधि सोसायटी, सारनाथ पृ. 12-14
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