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________________ 94 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला साथ ही इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि विवाहयोग्य कन्या के एकाधिक प्रणयी होने पर सफलता उसी को प्राप्त होती है जिसके पक्ष में कन्या के पिता का निर्णय होता था। जातिव्यवस्था अत्यधिक रूढ़ हो जाने से विवाह-सम्बन्ध में सजातीयता सबसे पहली शर्त बन गई थी, यद्यपि अन्तर्जातीय विवाह के भी उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। अम्बठ्ठ सुत्त में अन्तर्जातीय विवाह के प्रावधानों के उल्लेख मिलते हैं। __समाज का बहुमत बाल-विवाह का पक्षधर नहीं था। प्राप्त-यौवन कन्या का विवाह सर्वमान्य था, परन्तु विवाह-प्रथाओं में प्रायः सदा ही एकरूपता का अभाव रहा है। बुद्धकालीन समाज में भी बेमेल विवाह होते थे। वृद्ध व्यक्तियों को भी युवतियों से विवाह करने का लोभ रहता था। यही कारण है कि सुत्तनिपात में वृद्ध-विवाह की आलोचना की गई है। वेस्सन्तर जातक से ज्ञात होता है कि पूजक नामक एक वृद्ध ब्राह्मण ने अमित्ततापन नामक एक युवती से विवाह किया था, जिसका उपहास अन्य स्त्रियों ने किया था। यह भी प्रतीत होता है कि ऐसे विवाहों की संख्या अधिक नहीं होती होगी, क्योंकि प्रायः धनवान् वृद्ध ही कन्या के माता-पिता की निर्धनता का लाभ उठाकर अपना विवाह करने में सफल होते थे। बुद्धकाल में विधवा-विवाह की मान्यता के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी उदाहरण मिलते हैं, जिसका कारण सम्भवतः समाज के विभिन्न वर्गों में प्रचलित प्रथाओं का वैविध्य रहा होगा। विधवा-विवाह को सामान्यतः मान्यता न मिलने के कारण समाज में नवयुवती विधवाओं के भ्रष्टाचारमय जीवन में संलिप्त होने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। बुद्धकालीन समाज में पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन प्रायः आदर्श, शान्तिमय एवं आनन्दपूर्ण था। परन्तु जातक तथा थेरीगाथा में अनेक ऐसे प्रसंग भी हैं जो दुःखी दाम्पत्यजीवन की ओर संकेत करते हैं। उनमें से अधिकांश प्रसंगों में स्त्री के दुष्ट स्वभाव एवं दुश्चरित्रता को उत्तरदायी माना गया है, किन्तु कहीं-कहीं पति की धूर्तता का भी उल्लेख किया गया है। नारी-वर्ग को दुश्चरित्र प्रदर्शित करने के पीछे बौद्धों की सम्भवतः यह मानसिकता थी कि किसी प्रकार बौद्ध भिक्षुओं को स्त्रियों के मायापाश से दूर रखा जाए। बुद्धकाल तक आते-आते वैदिक ग्राम्य-परिवेश में काफी परिवर्तन हुए। राजगृह, चम्पा, वैशाली, साकेत, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, कपिलवस्तु आदि 13. “अतीतयोब्बनो पोसो, आनेति तिम्बरत्थनिं। तस्सा इस्सा न सुप्पति, तं पराभवतो मुखं ।।" - सुत्तनिपात, भिक्षु धर्मरक्षित (सं. तथा अनु.), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली 1977, पृ. 28 14. जातक,VI, पृ. 532-33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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