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________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय * 95 प्रमुख नगरों के रूप में विकसित हो चुके थे। इन समृद्ध नगरों के विलासप्रिय नागरिकों को आमोद-प्रमोद की वे समस्त सुख-सुविधाएँ प्राप्त थीं जो प्रायः ग्रामीण जीवन में दुर्लभ मानी जाती थीं। उनके विलासमय जीवन के ही एक सशक्त पक्ष के रूप में गणिकाओं को प्रमुख स्थान मिला। नगरवासी अपने नगर की गणिकाओं के सौन्दर्य पर गर्व का अनुभव करते थे। गणिकाएं भी तत्कालीन समाज का एक प्रमुख अंग थीं। वैशाली की आम्रपाली, राजगृह की सालवती के अतिरिक्त सामा, सुलसा, काली आदि गणिकाओं के नाम एवं उनसे सम्पर्क के मूल्य की चर्चा अनेकधा हुई है। ___ऋग्वैदिक काल से बुद्धकाल तक के सामाजिक विकास एवं इस विकास क्रम में नारी की परिवर्तित होती स्थिति पर दृष्टिपात करने से अनेक तथ्य हमारे समक्ष उद्घाटित होते हैं। ऋग्वैदिक काल में जो समाज वर्गों या वर्णों पर आधारित था, बुद्धकाल तक आते-आते उसमें वंश तथा जाति की प्रधानता हो गई, बल्कि यों कहें कि जाति ही व्यक्ति की प्रथम पहचान बन गई। नारी को पुरुषवर्ग के समान जो अधिकार ऋग्वैदिक समाज में प्राप्त थे, उनमें निरन्तर ह्रास होता गया, नारी पुरुषवर्ग तथा उसके द्वारा शासित परिवार व समाज के लिए दायित्ववाहिनी बनकर रह गई, उसकी सामाजिक स्वतन्त्रता जाती रही तथा घर के बाहर उसकी पृथक् पहचान भी खो गई। यह सत्य है कि घर के अन्दर उसे पत्नी तथा माता के रूप में पर्याप्त सम्मान मिलता रहा, तथापि उसका पृथक् व्यक्तित्व समाप्तप्रायः हो गया। राजशक्ति में वृद्धि, बड़े-बड़े राज्यों के विकास, विभिन्न नगरों के अभ्युदय, व्यापार-वृद्धि इत्यादि के चलते नारी का एक वर्ग देह-व्यापार के कर्म में भी संलग्न हो गया। परिणामस्वरूप, दिनानुदिन समाज में पुरुषों के अधिकार में वृद्धि और नारी की स्थिति ह्रासोन्मुख होती गई। बड़े-बड़े श्रेष्ठियों एवं राजाओं के महलों में राजकुमारों, श्रेष्ठियों, उनके परिजनों आदि के मनोरंजनार्थ नियुक्तं स्त्रियों के उदाहरण में पालि-साहित्य में अनेकधा मिलते हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि बुद्धकाल तक आते-आते नारी की दशा बहुत सन्तोषप्रद नहीं रह गई थी। बौद्ध धर्म में नारी का अभ्युदय - भगवान् बुद्ध समाज में हर प्रकार के उत्पीड़न, शोषण तथा वैमनस्यपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध थे। उन्होंने जाति, लिंग, आर्थिक स्तर आदि के आधार पर किए जाने वाले सामाजिक भेदभाव की भर्त्सना की तथा ऐसे दलित-पीड़ित लोगों एवं महिलाओं को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का यत्न किया। फिर भी निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाए तो बुद्ध की दृष्टि भी नारी-वर्ग के प्रति बहुत अधिक उदार नहीं थी। यद्यपि वे नारी-सम्मान तथा स्वातन्त्र्य के पक्षधर थे, और इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 15. महावग्ग, पृ. 19. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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