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________________ सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सुत्र * 159 सांसारिक विषय-भोगों की निस्सारता के बारे में अश्वघोष अपना तुमुल-घोष करते हुए मानव को संदेश देते हैं कि "जिस प्रकार जलते हुए घर में कोई भी मनुष्य निश्चिन्त होकर नहीं सो सकता, उसी प्रकार मृत्यु, व्याधि और जरारूप आग से जलते जीवलोक में कोई भी निर्भय होकर नहीं रह सकता।" मनुष्य को जो काम-विकार और मानसिक-सन्ताप पीड़ित करते हैं, उन्हें कपड़े पर गिरे हुए धूलि-कणों की तरह झाड़ देना चाहिए। सांसारिक विषय भोगों में आसक्त मनुष्य बन्धन रूपी पिंजरे में पुनः पुनः उसी प्रकार प्रवेश करने की चेष्टा करता है, जिस प्रकार चालाक शिकारी के भय से बचकर भागा हुआ चंचल मृग-छौना अपने झुण्ड में प्रवेश करना चाहता है, किन्तु बहेलिये के मधुर गीत की ध्वनि से सम्मोहित होकर पुनः जाल में फँसता चला जाता है 'कृपणं बत यूथलालसो महतो व्याधभयाद्विनिःसृतः। प्रविविक्षति वागुरां मृगश्चपलो गीतरवेण वंचितः।।20 अपि च - विहगः खलु जालसंवृतो हितकामेन जनेन मोक्षितः। विचरन् फलपुष्पवद्वनं प्रविविक्षुः स्वयवमेव पंजरम्।।" निश्चय ही जाल में फँसो चिड़िया किसी हितैषी के द्वारा मुक्त कराये जाने के उपरान्त, फल-फूलों से लदे वन में भ्रमण करती हुई स्वतः पिंजरे में घुसने की इच्छा रखती है। धनों में श्रद्धा रूप धन ही सर्वोत्कृष्ट है। रसों में प्रज्ञारस ही तृप्तिकर है, सुखों में अध्यात्म-सुख ही मुख्य सुख है, उसी प्रकार अविद्या रूपी दुःख ही सर्वाधिक दुःखदायी माना गया है। इसलिए अनेक राजा-महाराजा भी अपने परिवार, परिजनों और बन्धु-बान्धवों को छोड़कर चले गये, चले जायेंगे और चले जा रहे हैं, अतः नश्वर-क्षणिक वस्तुओं के प्रति मनुष्य को मोह नहीं करना चाहिए।22 इस प्रकार अश्वघोष ने अपने महाकाव्य में जीवनोत्थान के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है, जिनके द्वारा मनुष्य त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य एवं विषयोपभोग के अभाव द्वारा तपोमय जीवन जी सकता है और उस परम तत्त्व 'निर्वाण' को प्राप्त कर सकता है, जिसके द्वारा अपने साथ सम्पूर्ण विश्व को 'ज्ञान-दीप' रूपी निश्रेयस् की ओर ले जा सकता है। -संस्कृत विभाग ___ जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर 19. सौन्दरनन्द महाकाव्य 14/30, 15/3 20. सौन्दरनन्द महाकाव्य 8/15 21. सौन्दरनन्द महाकाव्य 8/16 22. सौन्दरनन्द महाकाव्य 5/43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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