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प्रसाद-साहित्य में बौद्ध दर्शन
डॉ. कैलाश कौशल
हिन्दी जगत् के देदीप्यमान कवि जयशंकर प्रसाद पर बौद्ध-दर्शन का गहरा प्रभाव दृग्गोचर होता है। बुद्ध की परदुःखकातरता ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना सुख समष्टिगत आनंद के साथ मिल कर उसका पूरक बन जाये ऐसी मानव-मन की प्रवृत्ति होनी चाहिए। प्रसाद की यह सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति की मानवतावादी दृष्टि के अनुरूप है जो अद्वैतवाद की आधारशिला पर खड़ी है।
बौद्ध दर्शन प्रमुखतः आचारपरक है। वह व्यावहारिक शिक्षाएँ देता है। बुद्ध के अनुसार संसार दुःखमय है, इससे मुक्ति पाना परम पुरुषार्थ है। आष्टांगिक मार्ग दुःख निरोध का मार्ग है। संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। आत्मा भी अनित्य परिणामशील है। वह दैहिक तथा मानसिक प्रक्रियाओं का संघातमात्र है। मोक्ष-दशा को 'निर्वाण' कहा गया है। इस प्रसंग में बोधिसत्त्व परमादर्श हैं।
प्रसाद-साहित्य में बौद्ध-दर्शन की प्रमुख विचारधाराओं के अनेक चित्र अंकित हैं1. दुःखवाद
बौद्ध दर्शन में संसार को दुःखपूर्ण बताया गया है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं जिनका मूल आधार दुःख है। ये चार आर्य सत्य क्रमशः दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख निरोध-गामिनी प्रतिपद कहलाते हैं। गौतम बुद्ध इस दुःख का वर्णन करते हुए कहते हैं कि “हे भिक्षुओं! दुःख प्रथम आर्यसत्य है। जन्म भी दुःख है, वृद्धावस्था भी दुःख है, मरण भी दुःख है। शोक, परिवेदना, दौर्मनस्य, उपायास (हैरानी) भी दुःख है। अप्रिय से संयोग होना भी दुःख है, प्रिय से वियोग भी दुःख है। ईप्सित वस्तु का न मिलना भी दुःख है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि राग द्वारा उत्पन्न पाँचों स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान) भी दुःख हैं। इस प्रकार गौतम बुद्ध संसार के प्रत्येक कार्य एवं प्रत्येक गतिविधि को दुःखपूर्ण मानते हैं। 1. बौद्धदर्शन, पृ. 64
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