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158 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
जिस प्रकार किसी औषधि का रस प्रारम्भ में कड़वा होता है और उसका परिणाम मीठा होता है, उसी प्रकार थकावट के कारण प्रारम्भ में उद्योग कटु प्रतीत होता है, किन्तु लक्ष्य-सिद्धि हो जाने पर मीठा फल रूप आस्वाद का अनुभव होता है। अश्वघोष अपने वैराग्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को मुक्त चित्त होकर भय, थकान और शोक-रहित, स्वाधीन, दूसरों के द्वारा न छीने जाने वाले अविनाशी, कल्याणप्रद वैराग्य-सुख का वरण करना चाहिए, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य में निहित आसक्ति, दुष्टाचरण एवं अनिष्ट-चिन्तन रूपी विद्वेष पूर्णतः छूट जाते हैं।" जिस तरह स्वर्णकार धूल से ढके सोने को क्रमशः पानी से बार-बार धोकर एवं अग्नि में पुनः पुनः तपाकर पहनने योग्य आभूषणों में परिवर्तित करता है, उसी तरह इन्द्रिय-निग्रही एवं योगाभ्यासी मनुष्य दोषयुक्त चित्त को दोषों से अच्छी तरह परिमार्जित कर अपने मन को शान्त एवं संकुचित करता है। जो मनुष्य निर्वाण की स्थिति में पहुँच जाता है, वह अपनी प्रज्ञा द्वारा अपने में विद्यमान सम्पूर्ण दुर्गुणों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार बरसाती नदी किनारे पर उगे वृक्षों को अपने में विलीन कर लेती है और वज्र की आग अपने समीपस्थ वनस्पतियों को पनपने नहीं देती।
शील, समाधि और प्रज्ञा रूपी स्कन्ध-त्रय वाले आष्टांगिक मार्ग पर चलकर कोई भी मनुष्य दुःखों के हेतु रूपी उन दोषों को छोड़करअनामय पद 'निर्वाण' को पा लेता है, जिससे उसके मन में विद्यमान तृष्णा और आसक्ति का पूर्णतः विनाश हो जाता है। जब आत्मा मुक्ति की ओर अग्रसर होती है, तो वह न तो पृथ्वी की ओर जाती है, न अन्तरिक्ष की ओर, न किसी दिशा में, न किसी विदिशा में, अपितु क्लेश-क्षय होते ही वह स्वतः शान्त हो जाती है, इसी को बौद्धों ने 'निर्वाण' अथवा 'मोक्ष' कहा है। इस निर्वाण को अश्वघोष ने बड़े ही सरल ढंग से 'दीपकन्याय' से उपन्यस्त किया है
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।।"
एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावानिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिवं न कांचिद्विदिशं न कांचिद क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।।18
13. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.93 14. सौन्दरनन्द महाकाव्य 5.26 15. सौन्दरनन्द महाकाव्य 15.68,69 16. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.36 17. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.28 18. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.29
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