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सौन्दरनन्द महाकाव्य में जीवनोत्थान के सुत्र * 157 अपने अनुज नन्द को वानरी का दर्शन कराते हैं, जिसका मुख निचोड़े गए महावर की तरह लाल वर्ण का है तथा एक आँख से विकृत है। तदुपरान्त वे इन्द्र के उद्यान में रमणियों के दर्शन कराते हैं और पूछते हैं कि तुम्हारी प्राणप्रिया पत्नी, वानरी और अप्सराओं में कौन सुन्दर है। तब नन्द कहते हैं - "स्वामिन्! आपकी अनुज-वधू और कानी वानरी में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर इन अप्सराओं और आपकी अनुज-वधू में है।" अतः ईंधन से आग की, पानी से सागर की और भोग से वासना की कभी तप्ति नहीं होती, उसी प्रकार कामोपभोग कभी तुष्टिदायक नहीं होता।' ___ अश्वघोष अपने काव्य में इन सांसारिक दुःखों से मुक्त होने के लिए दुर्गुणों का त्याग करने हेतु मानव को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि "अपने उत्कृष्ट गुणों से अलंकृत होकर कुरूप व्यक्ति भी दर्शनीय हो जाता है, किन्तु दुर्गुणों से युक्त रूपवान व्यक्ति भी विरूप प्रतीत होता है।10 इस अविद्या रूपी दुःख से तरने के लिए मानव को विषय-भोगों से दूर रहने का उद्योग करना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट उद्योग ही कार्य की सफलता का मूल कारण है। उद्योग के बिना कोई कार्य-सिद्ध नहीं होता। उद्योग ही सारी समृद्धियों के उदय का कारण होता है। जहाँ उद्योग नहीं होता वहाँ सर्वत्र पाप ही पाप होता है। अनुद्योगी लोगों को निश्चित रूप से अलब्ध वस्तुओं की उपलब्धि नहीं होती
और जो प्राप्त है, उसका भी नाश हो जाता है। ऐसे लोग आत्म-सम्मान खोकर दीन हो जाते हैं तथा शक्तिशाली उन्हें अपमानित करते हैं। अतः मानसिक अन्धकार से पीड़ित व्यक्ति का तेज क्षीण हो जाता है, साथ ही शास्त्र, संयम और सन्तोष नष्ट हो जाता है तथा वे अध:पतन को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत उत्साही व्यक्ति अप्राप्त वस्तु को भी प्राप्त कर लेता है। अश्वघोष ने बहुत ही सुन्दर उक्तियों के द्वारा उद्योगी पुरुष की प्रशंसा करते हुए कहा है -
- अनिक्षिप्तोत्साहो यदि खनति गां वारि लभते,
प्रसक्तं व्यामथ्नन् ज्वलनमरणिभ्यां जनयति। . प्रयुक्तो योगे तु ध्रुवमुपलभते श्रमफलं, . द्रुतं नित्यं यान्त्यो गिरिमपि हि भिन्दन्ति सरितः।।2 - अर्थात् उत्साही व्यक्ति पृथ्वी को खोदकर पानी निकाल लेता है, निरन्तर रगड़े जाने पर काष्ठ से आग उत्पन्न कर लेता है, योगाभ्यास में लगा व्यक्ति अवश्य ही फल प्राप्त करता है, और निरन्तर तेज बहने वाली नदियां पहाड़ों को भी तोड़ डालती हैं।
8. सौन्दरनन्द महाकाव्य 10.15, 16 9. सौन्दरनन्द महाकाव्य 11.32 10. सौन्दरनन्द महाकाव्य 18.34 11. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.94 12. सौन्दरनन्द महाकाव्य 16.97
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