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156 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आलोक प्राप्त होता है। अश्वघोष ने महाकाव्य में मानव-इच्छा को मानव के दुःखों का मूल कारण माना है और इन समस्त दुःखों का परिणाम है - जीव का जन्म-ग्रहण करना या शरीर-धारण करना। इस संसार में सबसे बड़ा भय वृद्धावस्था, रोग, और मृत्यु हैं। ऐसा कोई भी देश अथवा स्थान नहीं जहाँ इनका डर नहीं सताता हो। जहाँ देहधारी जाता है, दुःख भी उसका पीछा करते हैं। वृद्धावस्था आदि विपत्तियों की जड़ जन्म-मरण रूपी दुःख है। जिस प्रकार सभी औषधियाँ पृथिवी पर उत्पन्न होती हैं, उसी तरह सभी विपत्तियों का क्षेत्र जन्म ग्रहण करना है। जिस प्रकार ज़हरीला भोजन स्वादिष्ट हो या कटु मारक ही होता है, न कि पालक। उसी तरह अण्डज से ऊपर या नीचे किसी भी योनि में जन्म लेना दुःखों का कारण है। जिस प्रकार से आकाश में उत्पन्न हवा, शमी वृक्ष के भीतर अग्नि, धरती के नीचे पानी की सत्ता रहती है, उसी प्रकार मन और देह में दुःखों की उत्पत्ति होती है -
____ आकाशयोनिः पवनो यथा हि यथा शमीगर्भशयो हुताशः
आपो यथान्तर्वसुधाशयाश्च, दुःखं तथा चित्तशरीरयोनिः।। अश्वघोष जीवनोत्थान विषयक मूल्यों की मीमांसा दार्शनिक ढंग से करते हुए कहते हैं कि छल, कपट, मद, माया, लोभ, ईर्ष्या, वासना, प्रम इत्यादि अकुशल धर्म अग्नि-तुल्य दाहक हैं, जिन्हें निर्वाण रूपी जल से ही शान्त किया जा सकता है। इस निर्वाण रूपी जल से भगवान बुद्ध ने छल-कपट रूपी जल वाले, मानसिक व्याधि रूप जन्तु वाले, क्रोध, मद और भय रूपी तरंगों वाले, चंचल तथा अगाध दुर्गुण सागर को स्वयं तो पार किया ही, दूसरों को भी पार कराया। अश्वघोष ने समस्त सांसारिक दुःखों का मूल कारण अविद्या' को माना है, जिसका नाश तत्त्व-ज्ञान से ही संभव है। मनुष्य का कर्तव्य है कि स्वप्न की तरह सारहीन तथा सर्वसाधारणोपभोग्य इन विषयानन्दों से अपने चंचल मन को रोकना चाहिए, क्योंकि पवन-प्रेरित अग्नि की तृप्ति घृताहुति से कभी नहीं होती, ठीक उसी तरह विषयानन्दों से मन सन्तुष्ट नहीं होता। अतः कहा गया है -
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।।
- नारद परिव्राजकोपनिषद् 3.37 सांसारिक विषय-भोगों की भर्त्सना करते हुए महात्मा बुद्ध पत्नी में आसक्त
3. सौन्दरनन्द महाकाव्य - 15.46,47 4. वही...16.9 5. वही... 16.11 6. वही... 3.14 7. वही 5.23
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