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36 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला दूसरे को धोखा न दे, किसी को भी छोटा या अछूत न समझे और न क्रोध में आकर किसी का अहित करे, जैसे कोई माँ अपने जीवन की चिन्ता किए बिना अपने एकमात्र बच्चे की निरन्तर निगरानी करती है वैसे ही लोग समस्त प्राणियों के प्रति असीम प्रेम करें। हर समय अर्थात् खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, लेटे हुए प्राणियों की हित साधना में ही स्वयं को समर्पित कर दें। साथ ही साधक के लिए यह भी अनिवार्य है कि मैत्रीभाव क्रोध रहित तो हो ही, साथ ही राग रहित भी हो, क्योंकि रागात्मक मैत्री भाव होने से केवल अपने प्रिय जन के साथ ही मैत्री होगी और क्रोध की अवस्था में तो मैत्री भाव सम्भव ही नहीं है। ऐसा स्वार्थ रहित और सीमा सम्भेद से परे मैत्रीभाव विकसित करना अत्यन्त दुरूह कार्य है। अतः मैत्री भाव आदि ब्रह्म विहारों को विकसित करने के लिए ध्यान करना आवश्यक है, जिसे ब्रह्म-विहार, भावना कहा गया है।
इस ब्रह्म-विहार भावना के अभ्यास में सर्वप्रथम साधक को स्वयं के प्रति मैत्री भाव को विकसित करना चाहिए, क्योंकि सभी मनुष्यों के लिए यह सहज है। सामान्यतया सभी मनुष्य स्वयं से प्रेम करते हैं और अपना हित चाहते हैं। बुद्धवचन भी है - 'सब दिशाओं में चित्त से जाकर (विचारकर) देखा, तो स्वयं से बढ़कर प्रिय किसी को भी नहीं पाया। इस प्रकार पृथक-पृथक दूसरों को अपनी-अपनी आत्मा प्रिय है, अतः स्वार्थ के लिए दूसरों की हिंसा न करे13 साथ में यह भावना भी निरन्तर करे कि जैसे मैं अपना सुख चाहता हूँ वैसे ही दूसरे भी,अपना सुख चाहते हैं। इसके पश्चात् ब्रह्म-विहार-भावना के दूसरे सोपान में जो प्रिय है, अपने कुटुम्ब के हैं या गुरु हैं, उनके लिए सुख और हित की भावना का अभ्यास करना चाहिए। ये लोग हमारे प्रियजन हैं, अत: ऐसा अभ्यास करना भी सरल ही है। तीसरे सोपान में मध्यस्थ अर्थात वे लोग जो हमें न प्रिय हैं और न अप्रिय हैं, के लिए सुख और हित की भावना का अभ्यास करना चाहिए। अन्त में जो वैरी है या जो हमें अप्रिय लगता है, उसके प्रति सुख और हित की भावना करनी चाहिए। उपर्युक्त ब्रह्म विहार, भावना का निरन्तर अभ्यास करते हुए चित्त के मैत्री में अभ्यस्त हो जाने पर सीमा सम्भेद करते हुए (अर्थात् मैत्री की कोई सीमा, कोई भेदभाव न रखते हुए) समस्त प्राणियों के प्रति सुख और हित की भावना करनी चाहिए। करुणा के लिए भी साधक को इसी प्रकार ब्रह्म-विहार भावना का अभ्यास करना चाहिए।
करुणा और मैत्री में कोई मौलिक भेद नहीं। मैत्री की व्यवहार में क्रियान्विति करुणा है। मैत्री भाव के बिना की गई करुणा अहंकार और असमानता के भाव से दूषित 11. धम्मपद, गाथा 5 12. Sacred books of the East, Ed. Max Muller, MLBD, Delhi, 1973, P. 25 13. सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि।
एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो-संयुत्तनिकाय, 1.126 14. धम्मपद, गाथा 131 15. बुद्धघोष, विसुद्धिमग्गो, अनुवादक-स्वामी द्वारिकादास, पृ. 148-175
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