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बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा * 37 हो जाती है। मैत्री भाव का आधार समता होता है। अतः ब्रह्म-विहार रूप में करुणा सदैव मैत्री भाव से ओत-प्रोत रहती है। साधारण जन की दया और करुणा में भेद हैं। संसार के लोग नाना प्रकार के कष्टों और पीड़ा से पीड़ित रहते हैं। सामान्य व्यक्ति अपने ही दुःख से व्यथित रहने के कारण पर-पीड़ा पर विचार ही नहीं कर पाता। कुछ व्यक्ति दूसरों के कष्ट पर चिन्तित तो होते हैं, पर उनकी चिन्ता कर्म का रूप नहीं ले पाती, कुछ विचारवान लोग पीड़ित व्यक्ति के प्रति दया दिखाते हुए नाम मात्र की सहायता करके अपने कर्तव्य की इति मान लेते हैं। वस्तुतः करुणा परदुःख को दूर करने की निष्ठायुक्त प्रबल अभिलाषा होती है। इसका तात्पर्य यह है कि करुणावान व्यक्ति अपने सामर्थ्य, ज्ञान और उपलब्ध साधन का अधिकतम उपयोग करते हुए दूसरों के कष्टों को दूर करने का अथक प्रयास करता है। करुणा का उदय होने पर साधक पर-पीड़ा को स्वयं की पीड़ा की भांति अनुभव करता है। अतः जैसे हम अपनी पीड़ा को दूर करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं वैसे ही करुणावान व्यक्ति पर-पीडा के निवारण के लिए तत्पर रहता है। करुणा विचार तक ही सीमित नहीं रहती, वह कर्म में परिणत होकर रहती है। करुणा भाव पर-पीड़ा निवारण का सार्थक प्रयास होता है। ब्रह्म-विहार के रूप में करुणा सीमा सम्भेद करते हुए बिना भेदभाव के समस्त प्राणियों के लिए की जाती है। ऐसी करुणा लोगों की सोच और कर्म को संकचितता के दायरे से निकाल कर असीम व्यापकता देती है। करुणा समाज के सभी वर्गों के लोगों को परस्पर समीप लाती है। एक दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा अनुभव करने से आपस में सहयोग और सौमनस्य में वृद्धि होती है। प्रेम और मैत्री के सबल होने से घृणा और द्वेष निर्बल होते हैं।
मैत्री और करुणा की सम्यक् क्रियान्विति के लिए यह आवश्यक है कि इनकी अनुपालना उपेक्षा भाव अर्थात् राग-द्वेष और प्रिय-अप्रिय भावों से ऊपर उठ कर होनी चाहिए, अन्यथा इनका कार्यक्षेत्र अपने प्रियजन और परिजन तक ही सीमित होकर रह जाता है। उपेक्षा मानसिक समता है और यह सामाजिक समता की पूर्वगामी है। बिना मानसिक समता के सम्यक् सामाजिक समता प्राप्त नहीं की जा सकती है।
संक्षेप में मैत्री और करुणा के आदर्श उदात्त सामाजिक मूल्य हैं, ये समाज में समता, प्रेम सहयोग और शान्ति का विस्तार करते हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों का विकास होता है। ब्रह्म-विहार की पूर्णता जहाँ व्यक्ति को अर्हत् बनाती है वहीं दूसरी ओर एक स्वस्थ, समृद्ध और अहिंसक समाज का निर्माण भी करती है। व्यवहार में मैत्री
और करुणा अपनी पूर्णता को न भी न पहुँचे, तब भी इन भावों का अधिकतम सम्भाव्य विकास समाज की शान्ति और समृद्धता के विकास में अपना सार्थक योगदान देता ही है। ये उदात्त सामाजिक मूल्य बौद्ध धर्म को उदात्त मानवतावाद (Sublime Humanism) की पहचान देते हैं। मनुष्य समाज की धुरी है, कोई पारलौकिक शक्ति नहीं, व्यक्ति
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