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________________ बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ : समता, मैत्री और करुणा 35 प्रसन्नता में स्वयं प्रसन्न होना मुदिता है । उपेक्षा चित्त की सुख-दुःख, राग-द्वेष रहित द्वन्द्वातीत अवस्था है। इन चारों ब्रह्म विहारों में मुदिता का मैत्रीभाव में अन्तर्भाव किया जा सकता है। हमारे चित्त में जब सब सत्त्वों (प्राणियों) के प्रति प्रेम और मैत्रीभाव होता है तभी उनकी प्रसन्नता में हमें भी हर्ष की अनुभूति होती है । उपेक्षा चित्त की सम अवस्था है, जो मैत्री और करुणा को संतुलित बनाए रखती है । चित्त सम अवस्था में न हो तो कर्तृत्व का अभिमान उपस्थित होकर मैत्री और करुणा के दिव्य भाव को भ्रष्ट कर सकता है। यही नहीं मैत्री और करुणा में अति उत्साह का आवेग आने पर व्यक्ति का व्यवहार असंतुलित हो सकता है। अत: उपेक्षा मैत्री और करुणा के भाव को संतुलित और नियमन करने वाली चित्त की सम अवस्था है। 10 इन ब्रह्म विहारों को समस्त प्राणियों के प्रति किया जाने वाला सम्यक् व्यवहार कहा गया है। (सत्तेसु सम्मा पतिपत्ति) ब्रह्मविहारों में मूल भाव माना जा सकता है, क्योंकि मैत्री भाव के न होने पर करुणा और मुदिता का भी उदय नहीं हो सकता । मैत्री के द्वारा अन्य व्यक्तियों के साथ सद्भाव पूर्वक व्यवहार रखने के कारण इसे हम सामाजिक मूल्य के रूप में लेते हैं जो समाज परस्पर प्रेम और सौहार्द का विस्तार करता है । ब्रह्मविहार के रूप में मैत्री भाव में योगी या साधक सभी सत्त्वों (प्राणियों) के साथ स्वार्थरहित प्रेम और सौहार्द का भाव रखता है। यह चित्त की एक दिव्य अवस्था है। मैत्री, करुणा आदि ब्रह्म विहारों को अप्पमाण (अप्रमाण) कहा गया है, क्योंकि ये भाव केवल कुछ चयनित सत्त्वों तक ही सीमित नहीं रहते, अपितु साधक समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखता है। मैत्री स्वभावतः अन्यों के प्रति प्रेम और सद्भाव मूलक चित्त की अवस्था होने के कारण यह हिंसा, द्वेष और घृणा का प्रतिपक्षी भाव है। यह व्यक्ति के मन में किसी के भी प्रति अहित या हिंसा के भाव को आने से रोकता है। व्यक्तियों में मैत्री भाव का विकास होने पर समाज में हिंसक प्रवृत्तियाँ निर्बल होने लगती हैं, फलस्वरूप पारस्परिक सहयोग, सौहार्द और शान्ति की वृद्धि होने लगती है । समाज में समता और संतुलन मैत्रीभाव के विकास पर ही निर्भर है। स्वार्थ रहित मित्रता ऊँच-नीच के भेद और घृणा की अदृश्य दीवार को ध्वस्त करती है । सामाजिक समरसता के लिए मैत्री अनिवार्य भावभूमि है । साधारण जन की मैत्री और ब्रह्मविहार साधक की मैत्री में अन्तर होता है । साधारण जन की मैत्री स्वार्थ पर टिकी होती है। यदि वह निःस्वार्थ भी हो, तो भी वह चयनित होती है अर्थात् उसकी मैत्री केवल उन लोगों तक ही सीमित रहती हैं जो उसको प्रिय लगते हैं, परन्तु साधक की मैत्री प्रिय-अप्रिय का भेद नहीं देखती। साधक शत्रु या अप्रिय लगने वाले व्यक्ति के प्रति भी मैत्री भाव रखता है। धम्मपद में कहा गया है कि शत्रुता कभी शत्रुता से शान्त नहीं होती, अपितु अवैर अर्थात् मित्रता से शान्त होती है। 11 सुत्तनिपात के 'मेत्तसुत' अध्याय में मैत्री के आदर्श को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'कोई किसी 10. विसुद्धिमग्ग, पृ. 180 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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