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________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय - 91 विशिष्टता मानी जाती थी। यदा-कदा वह अन्य स्त्रियों के साथ बाहर भ्रमणार्थ भी जाती थी एवं निकटस्थ पर्वत-उद्यान आदि से पुष्पादि तोड़कर लाती थी।' ... ऋग्वेद में कितने ही ऐसे स्थल हैं जहाँ नारी के गृहिणी एवं मातृपद की भूमिका के साथ-साथ उसे पति की अनुचरी नहीं, अपितु सहचरी के रूप में भी दर्शाया गया है। गृहपति कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के साहचर्य के बिना नहीं कर सकता था। ऋग्वेद के वैवाहिक मन्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि वर-वधू का पाणि-ग्रहण 'सौभगत्व' अर्थात् सुख-समृद्धि-आनन्दयुक्त जीवन का उपभोग करने के लिए तथा 'गार्हपत्य' अर्थात् गृहस्थ-आश्रम के सभी कर्तव्यों का निर्वाह साथ-साथ करने हेतु करता है। वहाँ यह आकांक्षा प्रदर्शित की गई है कि दोनों का साहचर्य आजीवन बना रहे। . सामान्यतया ऋग्वैदिक काल में युवा-विवाह की प्रथा प्रचलित थी, अतः विधवा-विवाह का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं था, तथापि ऋग्वेद में विधवा-विवाह की प्रथा के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर विधवा स्त्री से कहा गया है - "हे नारी, मृत पति को छोड़कर इस जीवित संसार में आओ। तुमसे पुनर्विवाह का इच्छुक जो तुम्हारा दूसरा भावी पति है, उसके पत्नीत्व को प्राप्त होओ।"6 . __ऋग्वेद के कई सूक्त निःसन्तान स्त्री द्वारा किसी अन्य पुरुष के साथ सम्पर्क कर सन्तानोत्पत्ति करने अर्थात् नियोग करने की प्रथा की ओर संकेत करते हैं। नियोग द्वारा उत्पन्न पुत्र क्षेत्रज पुत्र' कहलाता था, जिसकी गणना 12 प्रकार के पुत्रों में होती थी। यह प्रथा उत्तरवैदिककालीन तथा महाकाव्यकालीन संस्कृतियों में भी चलती रही, जैसा कि महाभारत से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर तथा पंच पाण्डवों के जन्म के सन्दर्भ में ज्ञात होता है। अस्तु धीरे-धीरे यह प्रथा अलोकप्रिय होती गई तथा अन्ततः पूर्णरूपेण लुप्त हो गई। ___ ऋग्वेदकालीन समाज में स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था अवश्य रही होगी जैसा कि विश्ववारा, आत्रेयी, अपाला, घोषा काक्षीवती, वागम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, श्रद्धा कामायनी, शची पौलोमी, लोपामुद्रा आदि ऋग्वैदिक युगीन मन्त्रद्रष्ट्री विदुषियों के दृष्टान्तों से ज्ञात होता है। ऋषि-पत्नियाँ अपने पतियों के समान विदुषी हुआ करती थीं। सामाजिक जीवन में भी ऋग्वेदकालीन स्त्री को पुरुषों के समान ही अवसर एवं अधिकार प्राप्त थे। वे ऋषिपद को भी प्राप्त कर सकती थीं। इस प्रकार समाज में उन्हें वन्दनीय माना जाता था। विश्ववारा तथा अपाला ने कई ऋचाओं की रचना की थी। 4. तत्रैव - 10/56/2 5. तत्रैव - 10/85/36 6. तत्रैव.- 10/18/8 7. तत्रैव - 10/18/7-8; 10/40/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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