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बौद्ध धर्म-दर्शन में नारी का अभ्युदय ।
डॉ. नीहारिका लाभ
वैदिककालीन नारी
भारतीय संस्कृति के विकास-क्रम को यदि देखा जाए तो ऋग्वैदिक काल में नारी की पुरुषों के समकक्ष स्थिति के संकेत मिलते हैं। नारी-स्वातन्त्र्य, नारी शिक्षा, यज्ञयागादि में नारी की सहभागिता आदि के अनेक दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था, जिसके कारण परिवार में पिता का स्थान सर्वोच्च था। सामान्यतया नारी परिवार में अपने माता-पिता, भाई-बहन, पति-पुत्र आदि के साथ रहती थी तथा परिवार-प्रमुख की आज्ञा एवं उसके अनुशासन का पालन करती थी।
अस्तु, नारी की इस पराश्रयता के बावजूद उसे कई प्रकार के स्वातन्त्र्य भी प्राप्त थे। पारिवारिक जीवन में वह माता के रूप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। ऋग्वेद में “जायेदस्तं मघवन्त्सेदु योनिस्तदितवा युक्ता हरयो वहन्तु", कहकर पत्नी के गहिणी-पद का सुन्दर विवेचन किया गया है। माता के रूप में उसे परिवार में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। घर की व्यवस्था, बच्चों का लालन-पालन आदि माता के ही उत्तरदायित्व थे। अपनी गोद में बच्चों को लेकर बैठी माता का चित्रण बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है - 'आ पुत्रासो न मातरं विमृताः सानौ देवासो बर्हिषः सदन्तु।2
गृहिणी के रूप में भूमिका निर्वाह करती हुई वह प्रातःकाल अत्यन्त सवेरे उठती थी तथा सभी को जगाती भी थी। नित्यक्रिया से निवृत्त होकर तथा स्नान कर वह अपने पति के साथ गार्हपत्याग्नि में आहुतियाँ देती थी। यही कार्य वह मध्याह्न एवं सायंकाल भी पति के साथ मिलकर करती थी। पवित्र गार्हपत्याग्नि को प्रज्वलित कर रखना गृहिणी का पुनीत कर्तव्य माना जाता था। विभिन्न गृहकार्यों में दक्ष होना उसकी
1. ऋग्वेद - 3/53/4 2. तत्रैव - 7/43/3 3. तत्रैव - 1/2/28; 5/43/15;; 8/1/29; 8/13/13
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