SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला आधार पर जाति-व्यवस्था का उदय हुआ। भगवान ने समाज में व्याप्त इन बुराइयों को महसूस किया। उन्होंने देखा कि जन्म को वर्ण का आधार मानने के कारण सद्गुणों का लोप हो रहा है। जो जन्म से ब्राह्मण हो चुका है, वह कर्म से ब्राह्मण बनने का प्रयास नहीं कर रहा है। अतः धर्मों की रक्षा के लिए इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि जन्म से न कोई ब्राह्मण और न ही शूद्र, बल्कि कर्म से ही ब्राह्मण और कर्म से ही शूद्र बन सकता है। 13 भगवान बुद्ध का यह सिद्धांत सामाजिक न्याय को प्रत्यक्ष से प्रोत्साहन देता है। जाति-व्यवस्था का खण्डन कर चारों वर्णों को समान बताते हुए श्रावस्ती के अनाथपिण्डिक जेतवन में फासकारी ब्राह्मण को उपदेशित करते हुए भगवान ने कहा कि मैं न तो उच्च कुलीनता को अच्छा कहता हूँ और न बुरा, न मैं उच्च वर्ण को अच्छा कहता हूँ और न बुरा, न मैं बहुत धन-धान्य सम्पन्न को अच्छा कहता हूँ और न बुरा । ऊँचे कुल, वर्ण सम्पत्ति वाला व्यक्ति भी हिंसक, चोर, काम- मिथ्याचारी, झूठा, चुगलखोर, बकवादी, लोभी, द्वेषी, झूठी धारणा वाला आदि होता है। 14 तथागत ने एक स्थान पर स्वयं अपने बारे में बताया, जिसका वर्णन सुत्तनिपात के सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त में है। जब भगवान कोसल जनपद में सुन्दरी नदी (सई नदी का प्राचीन नाम) के किनारे परिभ्रमण कर रहे थे, उसी समय सुन्दरिक भारद्वाज नामक ब्राह्मण ने भगवान बुद्ध के पास जाकर पूछा - "आप किस जाति के है ?" 15 भगवान नें उत्तर देते हुए कहा था कि मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न राजपुत्र हूँ, न वैश्य हूँ और न कोई और ही हूँ | पृथक् जनों के गोत्र को भली प्रकार जानकर मैं विचारपूर्वक अकिंचन भाव से लोक में विचरण करता हूँ । चीवर पहन, बेघर हो, सिर मुंडाकर, पूर्ण रूप से शांत हो, यहाँ लोगों से अनासक्त हो विचरण करता हूँ। हे ब्राह्मण ! तू मुझसे गोत्र का प्रश्न अनुचित पूछ रहा है । " इसी क्रम में भगवान ने सुन्दरिक भारद्वाज को जाति गोत्र से हटकर जीवन व्यतीत करने तथा अहिंसामय यज्ञ करने का उपदेश दिया, जिसके पश्चात् सुन्दरिक भारद्वाज ने कहा - "आप जैसे ज्ञान पारंगत को पाकर मेरा यज्ञ पूर्ण हो। आप साक्षात् ब्रह्म हैं, भगवन्! मेरा भोजन स्वीकार करें।" इसके उत्तर में भगवान ने तत्कालीन ब्राह्मणों के रीति-रिवाजों का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा - धर्मोपदेश करने से प्राप्त भोजन मेरे लिए अभोज्य है । बुद्ध धर्मोपदेश से प्राप्त भोजन को त्याग देते हैं । " 13. सुत्तनिपात, वसल सुत्त 1.4 14. मज्झिमनिकाय 15. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.9 16. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.4 17. सुत्तनिपात, वासेट्ठ सुत्त 3.4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy