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________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता • 27 'अनत्तपरियाय' तथा अन्य कई सुत्तों से भी प्राप्त होता है। अंगुत्तरनिकाय में बताया गया है कि कोई भिक्षु आत्मज्ञ (अत्तजू) तब होता है जब वह जानता है कि वह श्रद्धा में, शील में, शिक्षा में (श्रवण के द्वारा), त्याग में, प्रज्ञा में तथा स्पष्ट भाषण (प्रतिभान) में आगे हैं।18 विन्टरनित्ज कहते हैं कि यह सत्य है कि राजा प्रसेनजित और उनकी रानी मल्लिका का संवाद19 उपनिषद के याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के प्रसिद्ध संवाद की याद दिलाता है, किन्तु हम जानते हैं कि बुद्ध प्रायः ब्राह्मण परम्परा के संस्मरणों का प्रयोग सर्वथा भिन्न अर्थ में करते थे। यहाँ गाथा में स्पष्ट कहा गया है - सभी दिशाओं में चित्त से भ्रमण करके आत्मा (स्वयं) से.प्रिय कहीं किसी को नहीं पाया। इसी प्रकार दूसरे लोगों के लिए उनका आत्मा प्रिय है, अतः जो आत्महित चाहता है, वह दूसरे की हिंसा नहीं करता। श्रीमती रिज डेविड्स का मत है कि यहाँ आत्मा एक सामान्य अर्थ (मेरी आत्मा या मैं स्वयं) में नहीं, अपितु दिव्य स्वगोत्र सर्वव्यापक रूप से प्रत्येक मनुष्य में रहने वाला, इस अर्थ में आत्मा का प्रयोग है। मल्लिकासत्त, जिसमें राजा प्रसेनजित और रानी मल्लिका का संवाद प्राप्त हैं,नैतिक शिक्षा से संबद्ध है और इसका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। संयुत्तनिकाय में इस सुत्त से पूर्व 'पियसुत्त' है जिसमें राजा प्रसेनजित कहता है कि किसे आत्मा प्रिय (मित्र) है और किसे आत्मा अप्रिय (शत्रु) है और पुनः राजा चिन्तनपूर्वक विचार व्यक्त करता है कि जो शरीर से, वाणी से और मन से सदाचरण करता है, उसे आत्मा प्रिय (मित्र) है और जो शरीर, वाणी, और मन से दुराचरण करता है, उसे आत्मा अप्रिय (शत्रु) है। अत्तरक्खित सुत्त में इसी प्रकार की चर्चा है। वहां पर राजा प्रसेनजित प्रश्न करता है कि किसका आत्मा रक्षित है और किसका अरक्षित है? उत्तर में कहा गया है कि जो काया, वाणी और मन से दुराचरण करते हैं, उनका आत्मा अरक्षित है, भले ही उनकी हस्तिसेना, रथसेना ओर पेदल सेना रक्षा करे, किन्तु उनकी 18. यस्मा च, भिक्खवें, भिक्खु अत्तानं आनाति - 'एत्तकोम्हि सट्ठाय सीलेन सुतेन चागेन पटिभानेना' ति, तस्मा 'अत्तबू'ति वुच्चति। अं.नि., भा. 3 (नालन्दा संस्करण), पृ. 240 19. मल्लिकासुत्त, सं.नि. भा. 1, पृ.73-74 20. सब्बादिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि। ____एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो।। वही, पृ. 74 21. सम्भाषा, पृ. 23 22. ये च खो केचि कायेन सुचरितं चरन्ति, वाचाय सुचरितं चरन्ति, मनसासुचरितं चरन्ति, तेसं पियो अत्ता। सं.नि.भा. 1 पृ. 070. 23. ये च खो केंचि कायेन दुच्चरितं चरन्ति,वाचाय दुच्चरितं चरन्ति, मनसा दुच्चरितंचरन्ति, तेसं अप्पियो अत्ता - वही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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