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16 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
- दीघनिकाय के अम्बट्ट सुत्त में भगवान ने उदाहरण देकर यह प्रमाणित किया कि विद्या और आचरण से सम्पन्न व्यक्ति ही देवों तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ है - विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसेति।
सोणदण्ड सुत्त में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि न तो ब्राह्मण माता-पिता से जन्म लेना, न गौरवर्ण का होना, न वेद को जानना किसी को ब्राह्मण बनाता है, ब्राह्मण कारक धर्म तो शीलवान होना है। मैंने एक लेख में लिखा है कि 'Had people listened to the sane and scientific arguments against caste system put forward by the Buddha and acted accordingly our society would have been free from the violation of human rights:- ( देखें मेरा लेख - 'The Buddha and the Human Righs' Collected in Aspects of Buddha-Dhamma.) सिर्फ मानव अधिकारों का हनन करने से ही हम लोग बचे नहीं होते, बल्कि एक ऐसे कोढ़ से छुटकारा पाते जो हमारे समाज को सड़ा-गला रहा
___ भगवान ने जातिवाद तथा ऊंच-नीच के भेद को महत्त्व न देकर अपने संघ में सबको स्थान दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शूद्रातिशूद्र यहां तक कि वेश्याओं को भी, डोम, चांडाल, भंगी, सोपाक आदि को भी प्रव्रजित किया।
भगवान ने जातिवाद के विरुद्ध जिन अस्त्रों को हमें दिया है, यदि उनका सही उपयोग करना हम लोग अभी भी सीख जायें तो समाज में समता, भ्रातृत्व और स्वतंत्रता : ला सकते हैं।
भगवान के ये क्रांतिकारी विचार हमें ऐसे ही एक समाज के निर्माण करने की प्रेरणा देते हैं।
यह सही है कि भगवान का प्रमुख उद्देश्य दुःखों से छुटकारा पाना था, इसलिए उन्होंने चार आर्य सत्यों दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा की बात कही और तृष्णा को दुःख का कारण दिखाकर उसे समूल उखाड़ फेंकने के लिए अष्टांगिक मार्ग पर चलने की बात कही। पर प्रसंगवश उन्होंने वैसी भी बातें कहीं हैं जिनके पालन करने से हमारी सामाजिक तथा राजनैतिक समस्या का या विधि-व्यवस्था की समस्या का समाधान हो सकता है।
ऊंच-नीच के भेद से उत्पन्न जो सामाजिक समस्याएं हैं उनका समाधान तो हम जाति प्रथा को मिटाकर ही कर सकते हैं और जब तक यह भेद-भाव रहेगा, सामाजिक समस्याएं बनी रहेंगी और हम पूरी तरह समाज को विकसित नहीं कर सकेंगे।
भगवान ने कूटदन्त सुत्त में कहा कि यज्ञ तब करना चाहिए जब समाज में शांति हो, विधि-व्यवस्था की समस्या न हो और यज्ञ हिंसक न हो अर्थात् उसमें निर्दोष
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