SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्ध योग एवं उसकी उपादेयता * 141 चतुर्थ ध्यान - योगी स्मृति-सम्प्रजन्यपूर्वक ध्यान के अंगों की प्रत्यवेक्षा करता है तो उसे अनुभव होता है कि चैतसिक सुख स्थूल है और उपेक्षा, वेदना तथा चित्तैकाग्रता शान्त है। तब वह चतुर्थ ध्यान का प्रयत्न करता है। चतुर्थ ध्यान के दो अंग हैं - 1. उपेक्षा-वेदना और 2. एकाग्रता। चतुर्थ ध्यान में चैतसिक सुख का प्रहाण होता है तथा स्मृति परिशुद्ध होती है। इस समय अनुभव होने वाला सुख दुःख, सौमनस्य और दौर्मनस्य का अभाव मात्र नहीं है। यह तीसरी वेदना है। इसे उपेक्षा भी कहते हैं। यही उपेक्षा चित्त की विमुक्ति है। सुख दुःख के प्रहाण से इसका अधिगम होता है। इस प्रकार योगी शमथ रूपी लौकिक समाधि को प्राप्त करता है। विपश्यना निर्वाण की प्राप्ति हेतु शमथ की भावना के पश्चात् विपश्यना की भावना आवश्यक है। विपश्यना के बिना योगी न तो अर्हत् पद को प्राप्त कर सकता है और न ही संसार के बन्धन से मुक्ति पा सकता है। पालि-त्रिपिटक में कहीं-कहीं शमथ एवं विपश्यना के एक साथ होने का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि शमथ और विपश्यना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विपश्यना को लोकोत्तर समाधि कहा गया है, क्योंकि विपश्यना का आलम्बन लौकिक कर्म का स्थान नहीं है। . विपश्यना प्रज्ञा का मार्ग है। विपश्यना का सामान्य अर्थ है - विशेष रूप से देखना। साधक विपश्यना की भावना से क्षणिक नामरूप धर्मों के अनित्य स्वभाव को जानता है, जिससे उसे यह ज्ञान हो जाता है कि जो अनित्य है वह दुःखरूप है, अनात्म है। इस प्रकार साधक जब नाम-रूप धर्मों के अनित्य, दु:ख और अनात्मस्वरूप को विशेष रूप से देखने लगता है तब उसका ज्ञान विपश्यना कहलाता है। भगवान बुद्ध के अनुसार जब साधक इस नाम और रूप को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाता है तब उसके अन्दर से आत्मा के अस्तित्व की मान्यता समाप्त हो जाती है और वह पूर्ण विपश्यना भावना को प्राप्त कर लेता है। विपश्यना भावना के अन्तर्गत सात प्रकार की विशुद्धियाँ करनी होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं - ___ 1. शील विशुद्धि.2. चित्त विशुद्धि 3. दृष्टि विशुद्धि 4. कांक्षावितरण विशुद्धि 5. . मार्गामार्गज्ञानदर्शन विशुद्धि 5. प्रतिपदाज्ञान दर्शन विशुद्धि 7. ज्ञानदर्शनविशुद्धि। . विपश्यना पद्धति मन को शान्त करने के लिए, रागद्वेष को कम करने के लिए स्वयं को जानने और देखने के लिए है। अर्थात् विपश्यना राग, द्वेष और मोह से विकृत हुए चित्त को निर्मल बनाने की साधना है, दैनिक जीवन के तनाव, खिंचाव से विकृत हुए चित्त को ग्रन्थि-विमुक्त करने का सक्रिय अभ्यास है। विपश्यना में जो अनायास, सहज श्वास चल रहा है, उसे देखने के लिए कहा जाता है। किसी प्रकार का विशेष प्रयत्न यहाँ नहीं किया जाता है। विपश्यना में आसन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy