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________________ 140 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 1.प्रथम ध्यान - काम और अकुशल के परित्याग से ही प्रथम ध्यान का लाभ होता है। इस ध्यान में विशेषकर कामधातु का अतिक्रमण होता है। यहाँ अकुशल धर्मो का आशय पाँच नीवरणों से ही है। ध्यान के अंग इनके प्रतिपक्ष हैं, यथा - समाधि कामच्छन्द का, प्रीति व्यापाद का, वितर्क स्त्यान का, सुख औद्धत्य-कौकृत्य का और विचार विचिकित्सा का प्रतिपक्ष है। इन पाँच नीवरणों का परित्याग कर प्रथम ध्यान वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और समाधि इन पाँचों अंगों से समन्वागत होता है। इन पाँच अंगों का जब तक प्रादुर्भाव नहीं होता तब तक प्रथम ध्यान का लाभ नहीं होता। योगी को आवर्जन, सम, अधिष्ठान, व्युत्थान और प्रत्यवेक्षण इन पांच प्रकारों से प्रथम ध्यान पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहिए तभी द्वितीय ध्यान की प्राप्ति हो सकती है। . द्वितीय ध्यान - प्रथम ध्यान से उठकर योगी विचारता है कि प्रथम ध्यान सदोष है क्योंकि इसके वितर्क-विचार स्थूल हैं और इसलिए इसके अंग दुर्बल और परिक्षीण है। द्वितीय ध्यान की वृत्ति शान्त है और उसके प्रीति, सुख आदि शान्ततर और प्रणीततर हैं, अतः वह द्वितीय ध्यान में प्रवृत्त होता है। द्वितीय ध्यान में स्थूल वितर्क और विचार का अनुत्पाद होता है। अतः द्वितीय ध्यान के केवल तीन अंग हैं - 1. प्रीति 2. सुख और 3.एकाग्रता। द्वितीय ध्यान सम्प्रसादन है।' अर्थात् श्रद्धायुक्त होने के कारण तथा वितर्क, विचार के क्षोभ के व्युपशम के कारण यह चित्त को सुप्रसन्न करता है। वितर्क विचार के अभाव से यह समाधि श्रेष्ठ है। द्वितीय ध्यान का भी आवर्जनादि पाँच प्रकारों से अभ्यास करना चाहिए। ततीय ध्यान - द्वितीय ध्यान भी सदोष है, क्योंकि इसकी प्रीति स्थूल है, यह विचार कर योगी को तृतीय ध्यान का यत्न करना चाहिए। तृतीय ध्यान के क्षण में प्रीति का अनुत्पाद होता है। इस ध्यान के दो अंग हैं - 1. सुख और 2. एकाग्रता। उपेक्षा, स्मृति और सम्प्रजन्य इसके परिष्कार हैं। ___ प्रीति का अतिक्रमण करने से तृतीय ध्यान का लाभी उपेक्षाभाव रखता है, वह समदर्शी होता है। इस कारण वह 'उपेक्षक' कहलाता है। यह उपेक्षा दश प्रकार की होती है - 1. षडङ्गोपेक्षा 2. ब्रह्मविहारोपेक्षा 3. बोध्यङ्गोपेक्षा 4.वीर्योपेक्षा 5. संस्कारोपेक्षा 6. वेदनोपेक्षा 7. विपश्यनोपेक्षा 8. तत्रमथ्यत्वोपेक्षा 9. ध्यानोपेक्षा और 10. परिशुद्धयुपेक्षा। योगी इस ध्यान में चैतसिक सुख का लाभ करता है और ध्यान से उठकर कायिक सुख का भी अनुभव करता है तथा उपेक्षा भाव से विहार करता है। तृतीय ध्यान का भी पूर्वोक्त पाँच प्रकारों से अभ्यास करना चाहिए। 6. अधिगमेन समं ससम्पयुस्तस्स झानस्स सम्माआपज्जन परिपज्जनं समापज्जनं झानसमङ्गिता" - परमत्थमंजूसा टीका 7. प्रीत्यादयः प्रसादश्च द्वितीयेऽङ्गचतुष्टयम्। तृतीये पञ्च तूपेक्षा स्मृतिर्ज्ञानं सुखं स्थितिः।" अभिधर्मकोश 8/7-8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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