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________________ 100 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला विशोधन 'सम्मा कम्मन्तो' (सम्यक कर्मान्त) है। चतुर्विध वाग्दुश्चरितों (पैशुन्य, पारुष्य, मृषावाद तथा सम्भिन्नप्रलाप) का विशोधन 'सम्मावाचा' (सम्यक् वाक्) है। इसका अभिप्राय है - वाणी पर नियन्त्रण। जीविका के अशोभन साधनों का विशोधन ही 'सम्मा आजीवो' (सम्यक अजीव) है। दुराजीव से तात्पर्य भेष मुखाकृति, भविष्यकथन, स्वप्नकथन, शकुनकथन, इन्द्रजाल प्रदर्शन, शस्त्रव्यापार, पशुव्यापार, मांस, मद्य तथा विष के व्यापार आदि से है। भावार्थ यह है कि जिस सवृत्ति के आश्रय से अनवद्य जीवन निर्वाह किया जाता है वह सम्यक् अजीव है। यदि सम्यक् आजीव विश्वविद्यालयीय शिक्षा का अंग बने तो अनेक समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जायेगा। छात्र सदाचरण की शिक्षा लेकर समाज में जायेंगे तो स्वस्थ समाज का स्वप्न चरितार्थ होगा। भ्रष्टाचार, घूसखोरी जो आज देश के कोढ बन गये हैं, उनकी गति के प्रसार में न्यूनता आयेगी। चित्त की एकाग्रता समाधि है।' ध्येयवस्तु का निरन्तर अविच्छिन्न रूप से स्मरण (चिन्तन) करना स्मृति और कुशल विचारों का अनुचिन्तन 'सम्मासति' (सम्यक् स्मृति) है। यहाँ 'प्रज्ञा' शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसके अनुसार धर्म के स्वभाव का विशिष्ट ज्ञान 'प्रज्ञा' है। 'धम्मसभावपरिवेधलक्खणा पञ्जा'। मोहान्धकार का नाश करना उसका कार्य है। चार आर्य सत्यों का सम्यक् बोध ही 'सम्यक दृष्टि' है। यह निर्वाण मार्ग का प्रथम सोपान है। इसके अभाव में शील एवं समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अविद्यामिश्रित संस्कारों को परिष्कृत करने का ज्ञानमय संकल्प ही 'सम्मा संकप्पो' (सम्यक संकल्प) है। संकल्प भी त्रिविध हैं - (1) नैष्कर्म्य संकल्प (2) अव्यापाद संकल्प (3) अविहिंसा संकल्प। सम्यक् संकल्प विचार दृढ़ता और निश्शंक निश्चय का सूचक है। बुराइयों को न उत्पन्न होने देने के लिए सतत उद्योग करना ही 'सम्मा वायामो' (सम्यक् व्यायाम) है। यह अष्टांगिक मार्ग दुःख-विनाश की ओर ले जाने वाला है। अतः यह मार्ग क्षेमकरी और उत्तम शरण है। इसकी शरण में आकर मानव दुःखों से छूट जाता है। अरियं अट्ठाङ्गिक-मग्गं दुक्खूपसमागमिनं।' एवं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं। एवं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति।। 1. चितस्स एकग्गता अयं समाधि। - संयुक्त निकाय, पृ. सं. 1 2. विसुद्धिमग्गो - 14 पृ. 305 3. धम्मपद, बुद्धवग्गो, 13 4. वही, 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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