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________________ बौद्ध धर्म-दर्शन के अध्ययन की उच्चशिक्षा में प्रासंगिकता डॉ. हेमलता बोलिया वर्तमान में जीविकोपार्जन की विद्या का महत्त्व बढ़ता जा रहा है, जिससे मनुष्य पैसा कमाने की मशीन तो बनता जा रहा है, परन्तु दूसरी ओर वह संवेदना शून्य होकर केवल आर्थिक पशु होता जा रहा है। वह अर्थ कमाने के लिये किसी भी स्तर तक जा सकता है। वर्तमान युग में भाई-भाई, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, सास-बहू, गुरु-शिष्य, शासक-शासित, सहयोगी-मित्र सभी सम्बन्ध आशंका के घेरे में आ गये हैं। इन सब भयावह परिस्थितियों में जीवन तनावग्रस्त हो गया है और व्यक्ति एक अज्ञात भय, आतंक और आशंका में जी रहा है। . ऐसी स्थिति में तनाव की समस्याओं से कैसे निकला जाए, इन परिस्थितियों में क्या किया जाए आदि विषयों का प्रशिक्षण देना विश्वविद्यालय का दायित्व बनता है। स्कूल शिक्षा के समय विद्यार्थी निश्चिन्त रहता है, किन्तु विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ ही विद्यार्थी के जीवन में अनेक प्रकार के संघर्ष प्रारम्भ हो जाते हैं। पहले वह विद्यालयीय अनुशासन में जीता हैं, फिर विश्वविद्यालय में सभी प्रकार के बाह्य अनुशासन से प्रायः मुक्त हो जाता है और स्व-अनुशासन पर अधिक बल रहता है। इस स्थिति में उसे ऐसे अध्ययन या शिक्षा की आवश्यकता होती है जो उसे सम्यक् अनुशासन में जीना सिखाए। अतः विश्वविद्यालयों में आर्य अष्टांगिक मार्ग के अध्यापन की महती आवश्यकता है, क्योंकि 'शील' आचार से सम्बद्ध है, जिसका अभिप्राय अच्छे कर्म करने से है। शील से चित्त कुशल कर्मों की ओर आवर्जित होता है, जिसकी अभिव्यक्ति कायिक एवं वाचिक संयम में प्रतिफलित होती है। इसे ब्रह्मचर्य की संज्ञा भी दी जा सकती है। इसमें समस्त नैतिक आचरण की नियम संहिता अनुस्यूत हो जाती है। त्रिविध कायदुश्चरितों (प्राणातिपात, अदिन्नादान, काम मिथ्याचार) का सम्यक् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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