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बौद्ध धर्म-दर्शन के अध्ययन की उच्च शिक्षा में प्रासंगिकता * 101 इस मार्ग को संयुत्त निकाय के मग्गसंयुत में कल्याणमित्र (आध्यात्मिक उपदेष्टा) कहा गया है।
बुद्ध ने 'दुःख सत्य' की स्थापना 'सव्वं दुक्खं' कहकर की है। उनके विचार में दुःख कोई दार्शनिक अवधारणा नहीं है, अपितु वास्तविक अनुभूति है। जन्म दुःख है जग-मरण, इच्छित वस्तु को प्राप्त न होना, अनिच्छित की प्राप्ति आदि दुःख हैं। एक प्रकार से बुद्ध ने अनात्मता, दुःखरूपता तथा क्षणभंगुरता (नश्वरता) के द्वारा भव (संसार) ओघ (प्रवाह/दुःख) को समझाया। इसका कारण तृष्णा है और इसका क्षय सम्भव है, जिसका उपाय मध्यम मार्ग है।
तृष्णा के विकराल एवं भयंकर स्वरूप को बुद्ध ने समझाया और उससे छूटने का मार्ग भी दिखलाया। उपभोक्तावादी संस्कृति के वातावरण में विद्यार्थी कैसे मोबाइल, फैशन के कपड़े आदि की अपनी तृष्णाओं को कम कर सकता है, कैसे इनकी भयंकरता से बच सकता है, इसका बोध बुद्ध के दर्शन से सम्भव है।
आज विश्वविद्यालयों में प्रत्येक विषय का अध्यापक स्वविषय की व्यावसायिकता और उपयोगिता का ही इतना विस्तार करता जा रहा है मानो उस विषय के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं। अन्य विषयों के साथ गलाकाट प्रतियोगिता चल पड़ी है। वर्तमान में आई.आई.एम. और आई.आई.टी आदि संस्थानों में प्रबन्धन एवं इंजिनियरिंग के विषय इतने चल पड़े हैं कि उन्होंने अपनी सीमा में सभी विषयों को लीलना शुरू कर दिया है। साथ ही प्रबन्धन और प्रौद्योगिकी का छात्र सामान्य विज्ञान के छात्रों के प्रति हीनता के भाव से देखता है, तो दूसरी ओर विज्ञान का छात्र वाणिज्य के छात्र को हीन दृष्टि से देखता है। मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान का कोई व्यक्ति यदि विश्वविद्यालयों के उच्च पद पर आ भी गया तो तकनीकी विरोध, राजनीति एवं घात-प्रतिघात के चक्र प्रारम्भ हो जाते हैं। वहाँ इनमें भी अन्तर्विरोध दिखाई देता है। छात्रों एवं कर्मचारियों में निष्णात राजनीतिगत गुटबाजी, परस्पर नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, विश्वविद्यालय के कोष पर कब्जा जमाने की कश्मकश सर्वत्र दिखाई पड़ती है। इस गलाकाट प्रतियोगिता में नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएँ.छिन्न-भिन्न हो जाती हैं।
- गौतम बुद्ध ने इस भयावहता की स्थिति का पूर्वानुमान कर लिया था, इसीलिये उन्होंने समाज के अध्यापक (भिक्खु) के लिये आचार संहिता बनाते समय पंचशील की स्थापना का आदर्श दिया - 1. अपराह्न भोजन करना, 2. माला धारण न करना, 3. संगीत न सुनना, 4. स्वर्ण का त्याग और 5. महंगी शय्या का त्याग। यदि छात्र जीवन में ही इन सब के प्रति अनुराग हो जायेगा तो क्या वह अध्यापक बनकर शुद्ध कर्मान्त वाला बन पायेगा तथा तृष्णा पर विजय भी प्राप्त कर सकने में समर्थ होगा? कहा भी गया है5. कल्याणमित्तो कल्याणसहायो, कल्याणसम्पवङ्को अरियं
अट्ठङ्गिकमग्गभावेति। - संयुत्तनिकाय, पृ. 4
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