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102 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
नत्थि रागसमो अग्गि नत्थि दोससमो गहो । नत्थि मोहसमं जालं नत्थि तण्हासमा नदी । "
अर्थात् राग के समान (दूसरी) आग नहीं । द्वेष के समान (दूसरा) ग्रह (पिशाच) नहीं। मोह के समान (दूसरा) जाल नहीं और तृष्णा के समान (डुबा देने वाली नदी नहीं ।
बौद्ध धर्म की आधार शिला है - मध्यम मार्ग । अतः गौतम बुद्ध ने काय क्लेश और काम सुख को त्यागकर बीच का मार्ग अपनाने का उपदेश दिया । 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' वीणा के तारों को इतना न कसो कि तार ही टूट जायें और न इतना ढीला रखो कि स्वर ही न निकले या बेसुरा हो जाये। दोनों ही अतियाँ अच्छी नहीं है। इनसे बचने का साधन मध्यम मार्ग है। इसी पर बौद्ध साधना टिकी हुई है। आचार्य बुद्धघोष ने अष्टांगिक मार्ग के महत्त्व एवं आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए 'विसुद्धिमग्गो' में लिखा है कि - 'सीलेन च कामसुखल्लिकानुयोगसंखातस्स अंतस्स वज्जं पकासंति होति। समाधिना अत्तकिलामयानुयोगसंखातस्स। पञ्ञाय मज्झिमाय पठिपत्तिया सेवन पकासितं होति।” अर्थात् शील से कामसुखात्मक आसक्ति निराकृत होती है और दुर्गति
अतिक्रम का उपाय प्रत्यक्ष होता है। जहाँ प्रज्ञा से दृष्टि संक्लेश का विशोधन होता है तो समाधि से तृष्णा संक्लेश का और वहीं शील से दुश्चरित संक्लेश का विशोधन होता है। यह मार्ग हमें चिन्तन की सन्तुलित एवं विस्तृत दृष्टि प्रदान करता है। कहा जाता है
'सा विद्या या विमुक्तये' यहाँ मुक्ति को व्यापक अर्थ में समझना आवश्यक है। पूर्वाग्रह, संकुचित मानसिकता, अंधविश्वास से रहित सम्यक् एवं संतुलित जीवन दृष्टि का विकास करना ही इसका ध्येय है। 'श्रेय' की अनदेखी कर 'प्रेय' को ही सब कुछ समझ लेना, या फिर वर्तमान के संकुचित हित को ही जीवन का लक्ष्य समझने की मनोवृत्ति बना लेना उचित नहीं है। इस तथ्य का संदेश इसमें निहित है।
विश्वविद्यालय की शिक्षा के क्षेत्र में इस सम्यक् एवं सन्तुलित जीवन दृष्टि के विकास में धर्म-दर्शन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है तथा उनमें भी बौद्धधर्म-दर्शन इस दिशा में विशेष योगदान दे सकता है । किन्तु इस हेतु यह आवश्यक है कि बौद्ध धर्म-दर्शन का अध्ययन पारम्परिक रूप में न होकर एक नए रूप में हो । बुद्ध ने जो नवीन चिन्तन दृष्टि दी है तथा विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म के अध्ययन-अध्यापन में जिन बिन्दुओं को रेखांकित करने की आवश्यकता है, वे कुछ बिन्दु हैं.
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1. संसार (भव ) की व्याख्या 'प्रवाह' (ओघ) के रूपक के माध्यम से करना ।
6. धम्मपद, मसवग्गो, गाथा 17
7. विसुद्धिमग्गो, पृ. 23
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