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126 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
2. बुद्धघोष कहते है- 'हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता दूसरों के हित, कल्याण के लिए प्रवृत रहना ही मैत्री है और मैत्री का प्रयोजन है- 'निस्सरणं हेतं आवुसो, व्यापादस्स,यदिदं मेत्ता चेतोविमुत्ति व्यापाद ( हिंसा) के नाश के लिए मैत्री की जाती है | मैत्री भावना के अभाव में आज मानव मानवता का विस्मरण कर वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, राष्ट्र जैसे मुद्दों पर विद्रोह कर रहा है और उदार दृष्टिकोण से शून्य होता जा रहा है। अमरीका में हुआ अश्वेत आन्दोलन, भारत में गुर्जर समाज के द्वारा किया गया गुर्जर आन्दोलन, मुम्बई में बाल ठाकरे के द्वारा मराठी भाषा के लिए किया गया विद्रोह आदि सभी इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। विसुद्धिमग्ग में बुद्धघोष मैत्री भावना के विस्तार की प्रक्रिया भी बताते हैं । वे कहते हैं कि सर्वप्रथम स्व में मैत्री भावना करें, तत्पश्चात् घनिष्ठ मित्र में, फिर मध्यस्थ में और फिर वैरी व्यक्ति में | 1
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आवश्यकता से अधिक संचय, पारस्परिक स्पर्धा, ईर्ष्या, सत्ता प्राप्ति तथा दूसरे की सम्पत्ति हड़पने की चेष्टा से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व में अशान्ति उत्पन्न होती है। इस अशान्ति का परिहार करने के लिए बुद्धघोष विसुद्धिमग्ग में मरणानुस्मृति का कथन करते हुए क्षणिकवाद को प्रस्थापित करते हैं। वे कहते हैंयथा पि कुम्भकारस्स कतं मृत्तिकभाजनं । खुद्दकं च महन्तं च यं पक्तं यं च आमकं।।
अर्थात् जैसे कुम्हार के बनाए हुए मिट्टी के बर्तन छोटे हों या बड़े, पक्के हों या कच्चे सब के सब फूट जाने वाले होते हैं, वैसे ही मर्त्यो का जीवन भी समझना चाहिए। यदि व्यक्ति क्षणिकता के सिद्धान्त को अच्छी तरह समझ कर अपना आचरण करे तो उसका परिग्रह, ईर्ष्या आदि स्वतः कम हो सकते हैं।
4. आज मानव समाज की व्यवस्था नैतिक, धार्मिक और सदाचार पूर्ण नियमों को छोड़ कर द्वेष और स्वार्थपूर्ण एवं शोषण नीति पर आधारित हो रही है। यह दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था भी अशान्ति का कारण है। इस व्यवस्था को सुधारने के लिए बुद्धघोष द्वारा उपदिष्ट विसुद्धिमंग्ग के सीलनिद्दसो में तीन प्रकार के शीलों की चर्चा महत्त्वपूर्ण है । वे कहते हैं - प्रत्येक व्यक्ति को
3. वही पृ. 182
4. 'तस्मा सक्खिभावत्थं पठमं अत्तान मेत्तायं करित्वा..... तदनन्तरं अतिप्पिय सहायके, अतिप्पियसहायकतो मज्झते, मज्झततो वेरिपुग्गले मेत्ता भावेतब्बा । ' - वही पृ. 150-151 5. वही, पृ. 54
6. विसुद्धिमग्ग, पठमो भागो, सीलनिद्देसो, पृ. 30
7. वही, पृ. 33
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