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________________ विसुद्धिमग्ग में शान्ति के उपाय 127 1. प्रातिमोक्षसंवरशील' अर्थात् अल्पमात्र दोष से ही भय कर उसे दूर करना, 2. इन्द्रिय संवरशील' अर्थात् पांचों इन्द्रियों और मन में उत्पन्न होने वाले लोभ, दौर्मनस्यादि अकुशल धर्म के संवर के लिए तत्पर होना तथा 3. आजीवपरिशुद्धिशील' अर्थात् नैतिक एवं प्रामाणिक रीति से आजीविका प्राप्त करना इनका सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर तदनुसार आचरण करना चाहिए । इससे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व सुदृढ़ और शान्त होगा । 5. क्रोध, अभिमान, दम्भ और अंसतोष ये चारों अशान्ति के मूल हैं। ये कषाय चतुष्क, राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होते हैं । इनके निराकरण के लिए बुद्धघोष मेघियसुत्त में कहते हैं - " असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय। मेत्ता भावेतब्बा व्यापादस्स पहानाय। अनिच्चसञ्ञा भावेतब्बा अस्मिमानसमुग्घाताय ।" अर्थात् व्यक्ति को राग के प्रहाण के लिए अशुभ की भावना करनी चाहिए, द्वेष के प्रहाण के लिए मैत्री की भावना करनी चाहिए और अभिमान, अहंकार को दूर करने के लिए अनित्यसंज्ञा की भावना करनी चाहिए। 6. बुद्धघोष कहते हैं- 'परदुक्खे सति साधूनं हृदयकम्पनं करोतीति करुणा 10 अर्थात् परदुःख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय में जो कम्पन होता है वही करुणा है। करुणा की प्रवृत्ति दूसरों के दुःख का अपनय करने के लिए होती है । जो दूसरों के दुःख को सहन नहीं कर सकता है वही दूसरों की मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है। हाल ही में आस्ट्रेलिया में एक भारतीय छात्र की रेल में करंट लगकर मृत्यु हुई तो मेलबर्न की पुलिस ने टिप्पणी की कि हम ऐसे ही तरीके से भारतीयों को यहाँ से समाप्त कर सकते हैं। इसी तरह अमरीका में भारतीय छात्रों के रेडियो कॉलर बांधकर उन्हें प्रताडित कर उनकी प्रतिभा को दबाया जा रहा है और उन्हें हतोत्साहित कर वहाँ से पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।" ये घटनाएँ उनकी क्रूरता का परिचय कराती है। यही क्रूरता धीरे-धीरे राष्ट्रवाद का विकराल रूप धारण कर लेती है और इससे वशीभूत होकर वे अणुबम, परमाणुबम आदि का दुरुपयोग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। इससे देश एवं विश्व में अशान्ति उत्पन्न होती है । बुद्ध ने इसके विपरीत करुणा का उपदेश दिया है, जिसकी चर्चा विसुद्धिमग्ग में बुद्धघोष ने प्रभावी ढंग से की है। शान्ति की प्राप्ति के लिए बुद्ध उपदिष्ट करुणा भावना की आज महती आवश्यकता है। करुणा भावना विश्वशान्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। 8. वही, पृ. 34 9. विसुद्धिमग्ग, पठमो भागो, कंम्मट्ठनग्गहणनिद्देस, पृ. 159 10. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिद्देसो, पृ. 181 11. राजस्थान पत्रिका, 31 जनवरी 2011, संपादकीय आलेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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