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128 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 7. मुदिता-भावना शान्ति के प्रवाह को गति प्रदान करती है। इस भावना में हर्ष का
उत्पाद होता है, जिससे अरति का उपशम होता है। जो मुदिता की भावना करता है, वह दूसरों को सम्पन्न देखकर उनसे ईर्ष्या या द्वेष नहीं करता है। दूसरों की सम्पत्ति, पुण्य और गुणोत्कर्ष को देखकर उसे अप्रीति और असूया नहीं होती है। मुदिता भावना किस प्रकार उत्पन्न की जाती है, इस सम्बन्ध में बुद्धघोष कहते हैंसचे पिस्स सो सोण्डसहायो वा पियपुग्गलो वा अतीते सुखितो अहोसि, सम्पति पन दुग्गतो दुरूपतो, अतीतमेव चस्स सुखितभावं अनुस्सरित्वा “एस अतीते एवं महाभोगो महापरिवारो निच्चप्पमुदितो अहोसी" ति तमेवस्स मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा। "अनागते व पन पुन त सम्पत्तिं लभित्वा हात्थिकखन्ध-अस्सपिट्ठि सुवण्णसिविकादीहि विचरिस्सति" ति अनागत पिसस मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा।” अर्थात् यदि घनिष्ठ मित्र या प्रिय व्यक्ति बीते समय में सुखी रहा हो, किन्तु इस समय दुर्गतिग्रस्त, भाग्यहीन हो तो भी उसके अतीत सुखीभाव का स्मरण करते हुए मुदिता उत्पन्न करने हेतु कहना चाहिए - जैसे-भूतकाल में तुम मित्र महाभोगवान्, महापरिवार वाले, नित्य प्रमुदित रहते थे। इस प्रकार मुदित रहो, भविष्य में पुनः तुम उस सम्पत्ति को प्राप्त कर सोने की पालकी आदि में बैठोगे। इस प्रकार उसके भावी मुदितरूप को ग्रहण कर मुदिता उत्पन्न करनी चाहिए।
इस तरह प्रिय व्यक्ति के प्रति मुदिता उत्पन्न करने के बाद मध्यस्थ के प्रति, फिर वैरी के प्रति क्रमिक भावना उत्पन्न करनी चाहिए। 8. 'सत्तेसु मज्झत्ताकारप्पवत्ति लक्खणा उपेक्खा 13 अर्थात् सभी सत्त्वों के प्रति
माध्यस्थ भाव से प्रवृत्त होना उपेक्षा है। विसुद्धिमग्ग का यह सूत्र सत्त्वों के प्रति समत्व का दर्शन कराता है। अर्थात् जिसमें उपेक्षा भावना होती है उसमें बडे-छोटे का भेदभाव नहीं होता। कोई वर्ण, जाति आदि उच्च या निम्न नहीं होती। उसके लिए सभी सत्त्व समान होते है। वह समदृष्टि वाला होता है। उपेक्षा भावना के सम्यक् आचरण से मानव समाज में वर्ण, जाति आदि सभी भेदभाव समाप्त हो सकते हैं। परिणामस्वरूप अन्याय, अत्याचार का भी अपनयन हो जाता है। बुद्धघोष के अनुसार मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चारों भावनाओं का विस्तार एक क्रम में होता है। वे कहते हैं कि ये भावनाएँ प्रारम्भ में अप्रिय पुरुष, घनिष्ठ मित्र, मध्यस्थ और वैरी पुरुष इन चार के प्रति नहीं करनी चाहिए। वे
12. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिदेसो 13. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, ब्रह्मविहारनिद्देसो 14. विसुद्धिमग्ग, दुतियो भागो, पृ. 148
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