________________
बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान - 145 ज्ञान के क्षेत्र में आती है। निरी कल्पना कला नहीं है उसे दृश्यजगत् में आना पड़ता है। दृश्यता 'रूप' के लिए आवश्यक है - 'रूपं दृश्यतयोच्यते संगीत, चित्र, मूर्ति, काव्य, अभिनय, स्थापत्य आदि किसी भी कला में रूप सर्वोपरि है। यहाँ उत्कण्ठा होती है कि क्या संगीत भी रूप की संज्ञा प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह श्रव्य' होता है। बी.एम. बरुआ ने अपनी पुस्तक 'ए हिस्ट्री ऑफ प्रिबुद्धिस्टिक इंडियन फिलॉसफी' में रूप को अनुभाष्य कहा है। उन्होंने फुसफुसाहट को श्वास के समान रूपहीन माना है। जोर से बोलने पर वही फुसफुसाहट जो कि अब तक श्वास थी, 'रूप' हो जाती है, अनुभाष्य हो जाती है। इस प्रकार संगीत के स्वर भी 'रूप' हैं। रूप धारण करने के कारण वे हमारी इन्द्रियों के ज्ञान क्षेत्र में आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी कानों से देखने और आँखों से सुनने को सर्वोत्तम कहा गया है। सर्वविदित है कि कलाएँ जहाँ 'रूप' की ओर संकेत करती हैं, वहीं इन्द्रिय-सुख से भी सम्बन्ध रखती हैं। भारतीय मनीषा ने कलाओं में 'रस' के उन्मीलन को प्रमुखता से स्थान दिया है। रस-निष्पत्ति की परिणति 'आनन्द' है, जिसे अनिर्वचनीय कहा गया है।
__इन दोनों दृष्टियों (धर्मदृष्टि एवं कला दृष्टि) से तो कहीं भी बौद्धधर्म और कला में कोई तारतम्य दिखाई नहीं देता है। कहाँ तो इन्द्रिय-सुख से विरक्ति का भाव (बौद्धधर्म दृष्टि) और कहाँ इन्द्रिय-सुख का आनन्द (कला दृष्टि)! कहाँ 'रूप' में अनासक्ति (बौद्धधर्म दृष्टि) और कहाँ रूप रचना (कलादृष्टि)! कहाँ 'स्व' का त्याग (बौद्ध धर्म दृष्टि) और कहाँ 'स्व' अर्थात् आत्मा की अभिव्यक्ति (कलादृष्टि) निर्वाण के पथ पर अग्रसर व्यक्ति के लिए कला का क्या प्रयोजन? इससे तो बौद्ध धर्म एवं कला का साहचर्यमूलक सम्बन्ध असंगत प्रतीत होता है। किन्तु जैसा प्रतीत हो रहा है वैसा वस्तुतः है नहीं। यदि हम भारत में कलाओं के चरम उत्कर्ष की ओर नज़र डालें तो बौद्ध कला' उभर कर सामने आती है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ रूप-रचना अभिव्यक्त होती है। भारतीय कला भण्डार को सर्वाधिक समृद्धता बौद्ध मूर्तिकला एवं चित्रकला ने प्रदान की। अतः बौद्ध धर्म और कला के साथ इसके सम्बन्ध पर दृष्टि डालें तो हमारी धिषणा के आगे जो अवगुंठन (पर्दा) है, वह स्वतः ही हट जाएगा और हमारी शंकाओं का समाधान भी मिल जाएगा। बौद्ध धर्म एवं कला : अन्तःसम्बन्ध
धार्मिक आन्दोलन के दृष्टिकोण से ई.पू. छठी शताब्दी का काल भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण काल रहा है। भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में यह
6. दशरूपक (धनंजय), 1.7 . 7. बी.एम बरुआ, ए हिस्ट्री ऑफ प्रिबुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी, कलकत्ता, 1921, पृ. 64 8. 'नामरूपस्मिं असज्जमानं, अकिंचनं, नानुपतन्ति दुक्खा'। - धम्मपद, कोधवग्गो, 1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org