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बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान
सुश्री ऋचा शर्मा
बौद्ध धर्म-दर्शन एवं कला
'निब्बान परमं वदन्ति बुद्धा'।' .. बौद्ध दर्शन में निर्वाण' ही परम लक्ष्य माना गया है। निर्वाण-प्राप्ति ही वह केन्द्र है जिसके चारों ओर बौद्ध धर्म-दर्शन की दृष्टि दिखाई देती है। इसे ही बौद्धदर्शन में परमसुख, सर्वस्व और अमृत पद कहा गया है। समस्त के त्याग का नाम ही 'निर्वाण' है - 'सर्वत्यागश्च निर्वाणम्'।' बौद्ध धर्म में यह समस्त का त्याग 'रूप' के त्याग की भी अपेक्षा रखता है। 'रूप' के अस्तित्व के साथ ही 'नाम' जुड़ा है। 'नाम' और 'रूप' की निर्ऋति (निरोध) निर्वाण-प्राप्ति के लिए उपदिष्ट मार्ग (प्रतीत्यसमुत्पाद) की आवश्यक कड़ी मानी गयी है। इस प्रकार बौद्ध मत जीवन के एकमात्र उद्देश्य के रूप में निर्वाण को स्वीकार करता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रत्येक बाधक तत्व (वह चाहे नाम हो, रूप हो अथवा इन्द्रिय-सुख हो) का निषेध करता है।
अब यदि हम कलाओं पर दृष्टिपात करें तो वे उपर्युक्त प्रकार से वर्णित निर्वाण से नितान्त भिन्न हैं। 'रूप' कला का प्रमुख तत्त्व है। 'रूप' से पृथक् तो कला की सत्ता ही नहीं है। कला कल्पना का संसार है, रचना का संसार है जो दृश्य होने पर ही हमारे 1. धम्मपद, बुद्धवग्गो,6 2. (क) 'निब्बानं परम सुखं । - वही, सुखवग्गो,7-8
(ख) आत्मानन्दः परानन्दो निर्वाणं परमं सुखम्'। - बुद्धचरित, 19.27 3. 'दुर्लभं शान्तमजरं परं तदमृतं पदम्'! बुद्धचरित, 12.106 4. सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः।
त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्त्वेषु दीयताम्।। - बोधिचर्यावतार, 3.11 5. (क) नामरूपनिरोधे च षडायतनसंक्षयः।
तथा विज्ञानरोधे च नामरूपे विनश्यतः।। - बुद्धचरित, 14.84 (ख) 'नामरूपस्मिं असज्जमानं, अकिंचनं नानुपतन्ति दुक्खा।' - धम्मपद कोधवग्गो, 1
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