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________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचशील की प्रासंगिकता * 113 सभी प्रकार के शीलों का मूल आधार अकुशल कर्मों की सही पहचान व उनका परित्याग है। इसी से कर्मफल की व्यवस्था की शुरूआत होती है - तीन कायिक, चार वाचिक एवं तीन मानसिक - इन दस अकुशल कर्मों को सही रूप में पहचान कर उनका निराकरण करके हम अपने चित्त को वश में रख सकते हैं। ऐसे पाप जो स्वभाव से दुष्कर्म हैं - प्राणिवध, चोरी, व्यभिचार, असत्यभाषण एवं सुरापान - आज विश्व में ये सभी पाप कर्म निरन्तर वृद्धि प्राप्त कर रहे हैं। अपने स्वार्थ एवं लालसाओं के कारण मानव त्याग एवं सहिष्णुता को छोड़कर निरन्तर इन दुष्कर्मों का आश्रय लेकर न केवल स्वयं को पतन की ओर अग्रसर कर रहा है, अपितु सामाजिक सद्भावना, प्रेम, क्षमा आदि गुणों से वंचित होकर अपने दुःख का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आचार पर अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। मोक्ष-प्राप्ति ही नहीं, अपितु सम्यक् सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक जीवन हेतु भी आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि मनु ने आचार को परम धर्म माना - आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।।' वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। जैन दर्शन में साधु के लिए पाँच महाव्रतों का निर्देश करते हुए गृहस्थजन के लिए पाँच अणुव्रत का निर्देश है, क्योंकि गृहस्थ जन साधुवत् महाव्रतों का पालन करें तो सामान्य रूप से जीवनचर्या एवं सामाजिक कृत्य नहीं कर सकते - अणुव्रतोऽऽगारी। मर्यादित रूप में जिनका पालन किया जाता है, वे अणुव्रत 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह रूप पाँच प्रकार के हैं। वस्तुतः शील के रूप में निरूपित ये अणुव्रत शाश्वत उपदेश हैं जो सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक होने से आधुनिक काल में विशेष रूप से विचारणीय हैं, क्योंकि वर्तमान समय में काम, क्रोध एवं लोभ जैसे कषाय अपने चरम पर हैं तथा तज्जन्य हिंसा से सकल समाज, सभी देश उद्वेलित है। ऐसे समय में इनकी प्रतिष्ठा आवश्यक है - इनमें . प्रथम है अहिंसा। 7. मनुस्मृति 1.108 8. मनुस्मृति.2.12 9. तत्त्वार्थसूत्र, 7.15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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