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________________ बौद्ध धर्म एवं कला : पारस्परिक अवदान * 147 बोधि-प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने सर्वजनहिताय धर्म का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया। अपने कार्य को स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने भिक्षुओं के एक संघ का निर्माण किया। महापरिनिर्वाण (बुद्ध की मृत्यु) के पश्चात् इसी बौद्ध संघ द्वारा उनके बहुजनहिताय एवं बहुजन सुखाय की भावना से आप्लावित मत का अधिकाधिक प्रचार हुआ। इसके अतिरिक्त बिम्बसार, अजातशत्रु, कनिष्क, हर्षवर्धन, अशोक आदि महान् राजाओं ने इस धर्म को ग्रहण किया और इसके उत्कर्ष में अपनी समस्त शक्ति लगा दी। सम्राट अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर से ऊपर उठाकर अपने प्रयासों द्वारा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया। इस कार्य के लिए राजकीय संरक्षकों ने कला को माध्यम बनाया। स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार एक महती आवश्यकता थी, जिसके लिए कला भी एक माध्यम बनी। राजकीय संरक्षकों ने ही नहीं, संघ के निवासी भिक्षुओं और अन्य बौद्ध अनुयायियों ने भी कला को माध्यम एवं साधना के रूप में स्वीकार किया। यथा-अजन्ता की कृतियों के रचनाकारों का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु कला मर्मज्ञ वाचस्पति गैरोला के अनुसार बौद्ध स्थविरों और कलाविद् आचार्यों का इसमें पूर्ण योगदान रहा है। विशेष रूप से महायान शाखा के बौद्ध भिक्षुओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि 'इन महान् कलाकृतियों के निर्माण में राज्याश्रित पेशेवर कलाकारों की अपेक्षा उन त्यागी, तपस्वी संन्यासियों की साधना अधिक दिखाई देती है, जिन्होंने यश-अपयश हानि-लाभ, और राग-द्वेष पर पूर्णतया विजय प्राप्त करली थी।1 कलाओं की दूसरी महत्त्वपूर्ण भूमिका है - लोगों को बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट करना। राज्याश्रय में कला अपने श्रेयस् अस्तित्व को प्राप्त करती हुई आध्यात्मिकता में पर्यवसित हो जाती है। धर्म की आध्यात्मिक, अदृष्ट एवं अलौकिक पृष्ठभूमि पर ही भारतीय चित्रकला की आधारभित्ति खड़ी है। यह आध्यात्मिक आकृष्टता ही जनसमूह में चेतना का अवलम्बन है। बौद्ध प्रचारकों की अनुभूति भी इस तथ्य से अछूती नहीं रही। निहार रंजन रॉय ने बौद्ध समुदाय की ओर विशेष रूप से संकेत करते हुए कहा है कि उन्हें यह महसूस हुआ कि कला के माध्यम से वे सीधे और प्रभावशाली ढंग से अपनी पौराणिक एवं दन्तकथाओं, प्रतीकों और उपमाओं का प्रचार करके अन्य 10. 'बुद्ध ने यह समझकर कि अपने जीवन में मैंने जिस धर्म का प्रचार किया है वह सदा फूलता-फलता रहे तथा वृद्धि को प्राप्त हो एक संघ की स्थापना की।' - आचार्य बलदेव उपाध्याय, बौद्ध दर्शन-मीमांसा, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1999 पृ. 372 11. वाचस्पति गैरोला, भारतीय चित्रकला, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1990, पृ. 118 12. रामनिवास वर्मा, धार्मिक प्रेरणा से उद्भूत कला, सं. प्रेमचन्द गोस्वामी, कला : सन्दर्भ और प्रकृति, जयपुर, 1971, पृ.75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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