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________________ 76 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला ब्रह्मदायाद हैं, का कई उदाहरणों द्वारा खण्डन किया है। वे कहते हैं कि मानवीय गुण और अवगुण सभी वर्गों में पाए जाते हैं, फिर ब्राह्मण कैसे कहते हैं कि वे ही श्रेष्ठ वर्ण हैं। उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए तथागत कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्गों की स्त्रियाँ ऋतुमती, गर्भवती होने के साथ योनि से प्रसव करती हैं, बच्चों को दूध पिलाती देखी जाती हैं, फिर ब्राह्मणों का यह कहना तो बिल्कुल ही गलत है कि वे ब्रह्म के मुख से उत्पन्न हैं। इस प्रकार तथागत ने स्पष्ट किया कि संसार के सभी मनुष्यों के जन्म का आधार एक (योनि) ही है। अतः जन्मीय आधार पर कुछ मनुष्यों द्वारा अपने को श्रेष्ठ बताना मिथ्या भाषण करना है। पुनः तथागत कहते हैं कि चारों वर्गों के कितने ही लोग जीव हिंसा, चोरी, मिथ्याचार, झूठ, मिथ्या दृष्टि, आदि अकुशल, सदोष, असेवनीय, अनार्य, कृष्ण, कृष्णविपाक कर्म करते हैं तथा इसके विपरीत चारों वर्गों के कितने ही लोग उपर्युक्त के विपरीत यथा कुशल, सेवनीय आदि कर्म करते हैं। इस तरह चारों वर्गों के लोग विद्वान पुरुषों द्वारा निन्दित तथा प्रशंसित कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में ब्राह्मणों द्वारा अपने को श्रेष्ठ बताना उनका मिथ्या भाषण है। उपर्युक्त खण्डन के पश्चात् तथागत ने अपना मत रखते हुए कहा कि चार वर्णो में जो भिक्खु अर्हत्, क्षीणाम्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ प्राप्त, भव-बंधन मुक्त, ज्ञानी और विमुक्त होता है, वह सभी से बढ़ जाता है, धर्म से ही, अधर्म से नहीं। अतः मनुष्य में धर्म ही श्रेष्ठ है, इस जन्म में भी तथा परजन्म में भी। चारों वर्ण के मानव काया, वचन और मन से संयत हो सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्मो की भावना करके इसी लोक में निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार तथागत ने कर्म को प्रधान माना, जन्म को नहीं, क्योंकि जन्म के अनुसार तो सभी समान होते ही हैं, कर्म के द्वारा एक दूसरे से अधिक श्रेष्ठ हो सकता है। अतः तथागत ने जन्मीय आधार पर सबको समान बताया जो सामाजिक न्याय के प्रमुख स्तम्भ 'समता' में आस्था के अनुकूल है। ___ महाभारत में यह स्पष्ट कहा गया है कि इतनी संकरता पैदा हो गई कि जाति का नियम ही व्यर्थ हो गया। हमें मुख्य स्थान शील को देना चाहिए। तथागत ने शील को महत्त्व प्रदान कर वर्ण को व्यर्थ सिद्ध किया। शील को महत्त्व संयुक्त निकाय की उन गाथाओं से स्पष्ट होता है जिनके आधार पर आचार्य बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग नामक ग्रंथ का लेखन किया। पहली गाथा प्रश्न के रूप में है तथा दूसरी गाथा इसका उत्तर है। विसुद्धिमग्ग के प्रारंभ में ही 'संयुक्त निकाय' के उद्धरण स्वरूप कहा गया है कि एक बार जब भगवान श्रावस्ती में विहर रहे थे तो किसी देवपुत्र ने उनके पास आकर गाथा 5. दीघनिकाय,3.4 6. दीघनिकाय,3.4 7. दीघनिकाय,3.4 8. महाभारत, वन पर्व,पृ. 182 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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