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बौद्ध धर्म के सामाजिक सन्दर्भ :
समता, मैत्री और करुणा डॉ. शिवनारायण जोशी 'शिवजी'
यद्यपि बौद्धधर्म विशेषतः थेरवाद निर्वाण की व्यक्तिपरक धारणा का पक्षधर है तथापि सभी बौद्ध निकाय समता, मैत्री और करुणा सरीखे सामाजिक मूल्यों को जीवन के आधारभूत मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं। बौद्ध दर्शन वस्तुतः एक व्यावहारिक दर्शन है। वह निर्वाण के वैयक्तिक आदर्श को सामाजिक मूल्यों के साथ इस प्रकार सम्बन्धित करता है कि सामाजिकता निर्वाण में बाधक न होकर सहायक हो जाती है। निर्वाण दुःखों का सदा सर्वदा नाश है और सामाजिक मूल्य दुःख निवारण के सरल उपाय हैं। दुःख सभी धर्मों का प्रारम्भिक अभ्युपगम है। सभी धर्म मनुष्य जीवन में दुःख की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं। यदि यह कहा जाए कि धर्म का प्रादुर्भाव दुःख के विरुद्ध मानवीय संघर्ष का परिणाम है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। सभी भारतीय दर्शन दुःख को जीवन की मूलभूत समस्या मान कर उससे निवृत्ति के उपायों का अन्वेषण करते हैं। बौद्धों ने समग्र मानवीय अनुभव को ही दुःख माना है। उनका कहना है - "सर्वम् अनित्यम् सर्वं दुःखम्" अनित्यता से इष्ट का बिछोह होता है और इष्ट के बिछोह से दुःख होता है। इष्टानिष्ट तृष्णा को जन्म देते हैं, इष्ट के मूल में प्राप्ति और संरक्षा की तृष्णा है तो अनिष्ट के लिए परित्याग की तृष्णा बलवती होती है। इष्ट की अप्राप्ति तो दुःख है ही, इष्ट की प्राप्ति में आने वाली बाधाएँ भी दुःख हैं तथा इष्ट का बिछोह भी दुःख है। अनिष्ट प्रतिकूल है जिसकी उपस्थिति अवांछनीय है। अनुकूलता और प्रतिकूलता की ये दोनों स्थितियाँ दुःख हैं। आत्मभाव (Ego '' ness) नित्यता और तृष्णा का पोषक है। तृष्णा राग-द्वेषादि दोषों की पोषक है। राग-द्वेष न केवल वैयक्तिक जीवन में दुःख और अशान्ति के जनक हैं, अपितु सामाजिक जीवन में भी विषमता, घृणा और हिंसा के उत्तरदायी हैं। - बौद्धों के अनुसार अनात्मवाद व्यक्ति और समाज दोनों में समता और शान्ति का प्रसार करता है। अनात्मवाद अभिमान का प्रतिपक्षी है, आत्मा का नहीं। अनत्ता चेतना
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