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________________ 32 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला का निषेध नहीं है। नित्य द्रव्य (Eternal Substance) के रूप में आत्मा का निषेध अनात्मभाव है। 'अनत्ता' का तात्पर्य यह बतलाना है कि आत्मा क्या नहीं है, संसार की सभी वस्तुएं अनात्म हैं। जिसे हम व्यक्ति कहते हैं वह भी पंच स्कन्धों का परिवर्तनशील प्रवाह है। अनात्मभाव 'ममकार' (मैं व मेरा) का निराकरण कर समता की ओर अग्रसर होने में व्यक्ति को प्रेरित करता है। अनुकूलता के प्रति आकर्षण का अभाव और प्रतिकूलता के प्रति विकर्षण का अभाव ही राग-द्वेष में सम रहना है। राग-द्वेष में सम रहना मानसिक समता है और अपने व्यवहार में लोगों के साथ वर्गगत, जातिगत और लिंगगत भेद नहीं करना सामाजिक समता है। मानसिक समता का विकास सामाजिक समता को विकसित करता है। बौद्धों की सामाजिक समता की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया को इस प्रकार सूत्रबद्ध किया जा सकता है - ___ अनात्मवाद →ममकार का निवारण →मानसिक समता (राग-द्वेष दौर्बल्य) → तृष्णा का दौर्बल्य →सामाजिक समता की ओर अग्रसरता। . बौद्धधर्म का उदय पुरोहित वर्ग द्वारा थोपी गई कर्मकाण्ड की जटिलता, वर्णभेद, लिंगभेद आदि सामाजिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप हुआ। बौद्धों के अनुसार व्यक्ति की श्रेष्ठता जातिगत या वर्गगत न होकर उसके गुण और सत्कर्मो से निर्धारित होती है। धम्मपद में किसी को जन्मना ब्राह्मण नहीं माना गया है। वहाँ कहा गया है कि 'न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है, जिसमें सत्य और धर्म है जो अकिंचन और त्यागी है, वह ब्राह्मण है। सुत्तनिपात में भी वर्णभेद को अस्वीकार करते हुए कहा गया है कि न तो कोई जन्म से अछूत होता है और न कोई ब्राह्मण। अपने कर्मो से ही व्यक्ति अछूत और ब्राह्मण होता है। बौद्ध धर्म का आधारभूत सिद्धान्त है कि सब मनुष्य बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे का सम्मान करें और लोगों के बीच घृणा की अदृश्य दीवार गिराएं। बौद्धों का यह मानना है कि सभी संस्कृतियाँ, सभी धर्म, सभी वर्ण, सभी स्त्री-पुरुष मूलतः समान हैं और प्रत्येक प्राणी में बुद्ध होने की सम्भावना विद्यमान है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास करने में समर्थ और स्वतंत्र है। मनुष्य स्वयं ही अपनी नियति निर्धारित करता है, न कि कोई पारलौकिक शक्ति। जहाँ तक लिंगगत भेद का प्रश्न है, महात्मा बुद्ध ने नारी जाति को जो मान दिया है वह ढाई हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन रूढ़िवादी परिस्थितियों को देखते हुए अत्यन्त 1. इस सम्बन्ध में महात्मा बुद्ध और आनन्द के बीच हुआ एक वार्तालाप उल्लेखनीय है - वत्सगोत्र द्वारा आत्मा से सम्बन्धित पूछे गए प्रश्न के सन्दर्भ में बुद्ध आनन्द से कहते हैं - 'यदि मैं उसे (वत्सगौत्र को) यह कहता आत्मा है तो यह नित्यवाद होता और आत्मा का निषेध करता तो उच्छेदवाद होता।(संयक्त निकाय XLIV-10) इस वार्तालाप से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनत्ता आत्मा का निषेध नहीं है महात्मा बुद्ध आत्मा के किसी भी प्रकार के सकारात्मक विवरण से बचते हैं। 2. धम्मपद (ब्राह्मणवग्गो) गाथा - 393,396, 400 .. 3. सुत्तनिपात (वसलसुत्त) गाथा-21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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