________________
120 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
शोधन के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। राहत एवं मुआवजा दिलों में भड़की आग के कारण को समाप्त नहीं करते। इसके लिए भगवान बुद्ध के उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें शाश्वत सत्य को प्रस्तुत किया गया है। धम्मपद में क्या ही सुन्दर कथन है- 'न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं, अवेरेन च सम्मन्ति" अर्थात् वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर अर्थात् मैत्री से ही वैर शान्त होते हैं। इन भावों का सम्प्रेषण जन-जन के जीवन में हो इसका प्रयास किया जाना चाहिए। एक-दूसरे के प्रति अवैर का भाव, मैत्री का भाव साम्प्रदायिक सद्भाव फैलाने में समर्थ होता है।
आज राष्ट्र के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहित किया जाता है, ऐसा कक्षा 5 की पाठ्य पुस्तक से ज्ञात होता है । पुस्तक में जापानी बच्चों से प्रश्नोत्तर इस प्रकार प्रकाशित हैं
:
प्रश्न- आप सबसे अधिक अच्छा किसे मानते हैं ?
उत्तर- भगवान् बुद्ध को।
प्रश्न- यदि भगवान बुद्ध पर कोई आक्रमण करे तो आप क्या करेंगे ?
उत्तर- आक्रमण करने वाले को समाप्त कर देंगे।
प्रश्न- यदि स्वयं भगवान बुद्ध ही जापान पर हमला करे ?
·
उत्तर- भगवान बुद्ध का सर हम काट देंगे।
इस पाठ में राष्ट्र के नाम पर हिंसा को बहादुरी बताया गया है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की शिक्षाएँ देने वाले बुद्ध क्या जापान पर आक्रमण कर सकते हैं ? यदि कर सकते हैं तो उनके (जापान के बच्चों) द्वारा बुद्ध को सबसे अधिक अच्छा क्यों माना गया ? यहाँ बुद्ध को अच्छा मानने के पीछे रहे आधारों को स्पष्ट करने के बजाय राष्ट्र के साथ बुद्ध को जोड़कर विद्यार्थियों के मन
छोटी सी उम्र में ही संकीर्ण सोच के बीज बोये जा रहे हैं। जहाँ विश्व एक गाँव बन रहा है वहाँ मात्र राष्ट्र को महत्त्व न देकर पूरे विश्व अर्थात् मानव मात्र के कल्याण हेतु शिक्षा प्रदान करने की बात सोची जानी चाहिए। बौद्ध दर्शन का 'बहुजनहिताय 'बहुजनसुखाय' सिद्धान्त इसी शिक्षा की ओर संकेत करता है।
बुद्ध की उदारदृष्टि
भगवान बुद्ध ने धर्म या संघ को लेकर हिंसा न हो अर्थात् साम्प्रदायिक हिंसा का उद्भव न हो, इसके लिए अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा ममं वा, भिक्खवे, परे अवणं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, संघस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया । ममं वा, भिक्खवे, परे
1. धम्मपद, 1.5
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org