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________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन - 165 या अनुचित कार्य का विरोध करना चाहिए। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अशोक की चिन्ता' में सम्राट अशोक कलिंग-युद्ध की बर्बरता, क्रूरता एवं पैशाचिक निर्दयता देखकर द्रवित हो उठते हैं और सदा-सदा के लिए शस्त्र का परित्याग कर देते हैं। यही नहीं, वे बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर प्रेम द्वारा मानव-हृदय पर विजय पा लेने का बीड़ा उठाते हैं। प्रसाद शोकाकुल अशोक के चिन्तन-मनन द्वारा युद्ध की भर्त्सना कर प्रेम-पूर्वक मन पर शासन करने का आग्रह करते हैं। 'अजातशत्रु' नाटक में 'अहिंसा' की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हुई है। मृग-शावक का शिकार न करने देने पर जब छलना पद्मावती को धिक्कारते हुए कहती है कि 'तुम राजा (अजातशत्रु) को अहिंसा सिखाती हो? जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है' तब पद्मावती का कथन है, 'मेरी समझ में तो मनुष्य होना राजा होने से अच्छा है।"25 यही नहीं गौतम बुद्ध इस नाटक में कहते हैं, "दूसरे के मलिन कर्मो को विचारने से भी चित्त पर मलिन छाया पड़ती है" और “आनन्द, दूसरों का अपकार सोचने से अपना हृदय भी कलुषित होता है।"26 'कामायनी' में भी इसी अहिंसा-सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए श्रद्धा अपने प्रेम, स्नेह, धैर्य, औदार्य आदि के द्वारा हिंसक, विलासप्रिय, छली एवं अनाचार में अनुरक्त मनु के हृदय का परिष्कार करती है। श्रद्धा द्वारा किलात आकुलि के पशु-बलि का विरोध भी बुद्ध के अहिंसा-सिद्धान्त से प्रेरित है। 5. विश्वनीड़ की परिकल्पना बौद्ध-दर्शन में असहिष्णुता, स्वार्थ-भावना, वैमनस्य, भेद-भाव, संकीर्णता आदि को त्याग कर विश्वजनीन धर्म को अपनाने तथा समस्त विश्व को अपना घर समझने का प्रबल आग्रह है। 'अजातशत्रु' नाटक में मागन्धी का मान-मर्दन होने पर गौतम बुद्ध उसे समझाते हुए कहते हैं, "क्षणिक विश्व का यह कौतुक है देवि! अब तुम अग्नि से तपे हुए हेम की तरह शुद्ध हो गई हो! विश्व के कल्याण में अग्रसर हो। ..... ....इस दुःख-समुद्र में कूद पड़ो, यदि एक भी रोते हुए हृदय को तुमने हँसा दिया, तो सहस्रों स्वर्ग तुम्हारे अंतर में विकसित होंगे। ..........विश्व-मैत्री हो जायेगी - विश्व भर अपना कुटुंब दिखाई पड़ेगा।"27 'आँसू' काव्य में कवि संसार के सभी प्राणियों की पीड़ा से भर कर अपने आँसू को विश्व-सदन में बरसने के लिए प्रेरित करता है, जिससे सम्पूर्ण जगती के साथ जुड़ाव हो। 'कामायनी' में बुद्धि के निर्मम व निरंकुश राज्य में प्यासा बन कर ओस चाटने वाले मनुष्य को उन्होंने बुद्धि व हृदय में सम्यक् संतुलन स्थापित करने का संदेश दिया है, जिससे वह भौतिकता और आध्यात्मिकता एवं प्रवृत्ति और निवृत्ति से समन्वित जीवन को साधे। इस महाकाव्य के अंत में प्रसाद ने 25. अजातशत्रु, प्रथम अंक, पृ. 24 26. अजातशत्रु, द्वितीय अंक, पृ. 81 27. अजातशत्रु, तृतीय अंक, पृ. 108-109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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