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________________ 40 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला यह स्पष्ट कहा कि शत्रुता से शत्रुता का अन्त कभी भी नहीं होता। इसके विपरीत प्रेम व शान्ति का मार्ग ही इसे समाप्त करने की ओर ले जाता है - "न हि वेरेने वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।" यदि कोई व्यक्ति यही सोचता रहता है कि अमुक व्यक्ति ने मुझे मारा, डाँटा, गाली दी, लूट लिया इत्यादि, तो वह सदैव मानसिक तनाव में रहता है और उसके कलह कभी शान्त नहीं होते, किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति इन बातों को भूलकर.शान्त रहता है तथा सकारात्मक रूप से सोचता है, तो उसके कलह शान्त हो जाते हैं - 'अकोच्छि म अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे। एतं वे उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति।। अक्कोछि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे। एतं वे न उपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मन्ति।। बौद्ध धर्म में प्रव्रजित-उपसम्पन्न होने वाला कोई श्रमण (भिक्षु) या भिक्षुणी हो; अथवा हो कोई गृहस्थ उपासक-उपासिका; उसके लिए दस शिक्षापदों (प्रव्रजितों के लिए) या पांच शिक्षापदों (गृहस्थों के लिए) को ग्रहण कर यावज्जीवन उनका अनुसरण करना आवश्यक होता है - "पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि। __ यहां 'पाणातिपाता वेरमणी' का शिक्षापद ग्रहण करने का तात्पर्य यह है कि इसका साधक जानबूझ कर किसी भी प्राणिहिंसा का दोष करने से बचा रहेगा। प्रतिदिन उठने-बैठने, चलने-फिरने, खेती-बाड़ी करने से अनेकों जीव, छोटे-बड़े कीट-पतंग आदि अनजाने में हमारे पैरों तले कुचलकर या हाथों से भी मर जाते हैं। किन्तु, जानबूझ कर हम किसी प्राणी को मारने से हिचकिचाते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है? और उत्तर यही मिलता है कि हमारे शास्त्रों ने तथा हमारे धर्मगुरुओं ने यह स्पष्ट किया है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति मन से अवश्य तनावग्रस्त रहता है, जबकि अहिंसा के मार्ग का अनुयायी मन में शान्ति का अनुभव करता है। शास्ता भी कहते हैं - "वरं जयं पसवति, दुक्खं सेति पराजितो। उपसन्तो सुखं सेति हित्वा जयपराजय।। 1. धम्मपद, गाथा -5 2. तत्रैव, गाथा 3-4 3. खुद्दकपाठ (दस सिक्खापदं) - भिक्षु धर्मरत्न एवं भिक्षु धर्मरक्षित (सं.+अनु.), भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद्, लखनऊ, पृ. 3 4. धम्मपद, गाथा 201 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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