________________
हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका 41
यद्यपि पालि साहित्य में 'अहिंसा' शब्द औपचारिक रूप से प्रयुक्त नहीं हुआ है तथापि 'पाणातिपाता वेरमणी', 'अवेर', 'मेत्ता', करुणा, 'अदोस' इत्यादि अनेक ऐसे शब्द हैं जो 'अहिंसा' भाव का संवहन करते हैं।
आज के आधुनिक परिवेश में परिवार, समाज, गांव, कस्बा, नगर, महानगर तथा अन्तरराष्ट्रीय सभी स्तरों पर घृणा, विद्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिस्पर्द्धा इत्यादि की बहुलता देखने को मिलती है। यह प्रवृत्ति अतीत काल में भी थी और आज भी है । बड़े देश छोटे तथा दुर्बल देशों को सैन्य बल पर या अन्य अनेक विधियों व बहानों से डराते धमकाते रहते हैं या फिर कभी-कभी उनके कई हिस्से हड़प लेते हैं। यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् दूसरे देशों की भूमि पर कब्जा करने के दृष्टान्त कम मिलते हैं, तथापि यह प्रवृत्ति पूर्णतः रुक गई हो ऐसा नहीं लगता। चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लेना जिससे कि दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, रासायनिक हथियारों को समाप्त करने के बहाने अमेरिका द्वारा इराक पर हमला कर सद्दाम हुसैन को मार देना, इस्लामी मज़हब के नाम पर अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत के जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का ताण्डव इत्यादि अनेक उदाहरण हमारे समक्ष विद्यमान हैं। अपनी बात को बलात् किसी दूसरे व्यक्ति, समाज या कौम पर थोपने की कोशिश करना और बात नहीं मानने पर उसे डराना-धमकाना और एतद् हेतु हिंसात्मक कार्रवाई करना ही आतंकवाद है।
आज भारतवर्ष ही नहीं, अपितु विश्व का एक बहुत बड़ा भाग हिंसा तथा आतंकवाद की समस्या से ग्रस्त है और इसका निदान कोई भी नहीं निकाल पा रहा है। अपने देश में एक लम्बे समय तक पंजाब के आतंकवाद का हमने सामना किया है और कश्मीर में भी प्राय: 22 वर्षो से हम इस समस्या से ग्रस्त हैं। विदेशों में अफगानिस्तान, इराक, इज्राइल व फिलीस्तीन, दक्षिण कोरिया - उत्तरकोरिया, फिलीपीन्स आदि देशों में हिंसा और आतंकवाद का वातावरण देखने को मिलता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि ये समस्याएँ उत्पन्न ही क्यों होती है ? क्या इन्हें उत्पन्न होने से ही रोका नहीं जा सकता है और यदि किसी कारण ये उत्पन्न हो भी गईं तो इन्हें दूर करने के उपाय क्या हैं? वर्तमान राष्ट्रीय संगोष्ठी के सन्दर्भ में बौद्ध धर्म की इनके निवारण में क्या भूमिका हो सकती है ?
सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि असहनशीलता, क्रूरता, वैमनस्य इत्यादि उत्पन्न ही क्यों होते हैं और क्या इनकी उत्पत्ति को किसी प्रकार रोका नहीं जा सकता? कारण अनेक हो सकते हैं, किन्तु बौद्ध दृष्टिकोण से यह विवेचना की जाए तो सबके मूल में तीन प्रकार के 'अकुशल मूल' या ' हेतु' को चिह्नित किया जा सकता हैलोभ, दोष (द्वेष तथा मोह । लोभ, राग, तृष्णा, पिपासा, लिप्सा इत्यादि एकार्थक हैं, जिनकी प्रवृत्ति होती है - उपलब्ध से अधिक प्राप्त करने की इच्छा, चाहे वह उचित तरीके से हो या अनुचित तरीके से। इससे ग्रसित व्यक्ति हो या संस्था वह दूसरों की
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org